विवाहोपरांत परिवर्तित नहीं होता,
सिर्फ हमारा उपनाम,जीवन,
बदल दिया जाता है बहुत कुछ,
वेश,परिवेश,ख्वाहिशें, स्वप्न।
नहीं अहमियत रखते हमारे विचार,
नहीं निभा सकते मायके के संस्कार,
नहीं बना सकते वहाँ के पकवान,
मूल्यहीन हैं वहाँ से मिले हर सामान।
मायके जाते हैं हिदायतों के साथ,
कर्ज,फर्ज औऱ रवायतों की बात।
कुछ मोहलत अहसान की तरह,
भेजा जाता है मेहमान की तरह।
दी जाती है जिसे अपनाने की दुहाई,
वहाँ रहते हैं आखिरी सांस तक पराई।
बदल जाती हैं सारी प्राथमिकताएं,
रीति-रिवाज,सारी मान्यताएँ,
खींच दी जाती हैं तमाम रेखाएं,
जिन्हें निभाना है खामोश सर झुकाए।
क्यों सारा परिवर्तन सिर्फ़ हमारे लिए?
नहीं, अब औऱ नहीं स्वीकार्य है,
द्विपक्षीय सामंजस्य अनिवार्य है।
समानता के अधिकार का स्वर है,
यह विचार अब पूर्णतः मुखर है।
नहीं करनी है हमें प्रतिद्वंदिता,
बस चाहिए समानता,सहभागिता।।
रमा शर्मा 'मानवी'
****************