खामोश परिंदे थोडा और सब्र कर
के तेरे भी दिन आयंगे उड़ने के
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आज छलांग उनकी उंची हैं तो क्या हुआ
कल तेरा भी खुदका आसमां होगा
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तो क्या हुआ जो आज उनके पास शौकत-शान है
तो क्या हुआ जो आज उनपे किस्मत मेहरबान हैं
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हर रोज़ कड़ी धूप की वो पेहेर तो ढलती ही हैं
और सितारोंसे भरी रात तो हर रोज़ खिलती ही हैं
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तो क्यों देखता हैं तू अंधेरे को काले
तू चुन के देख चांदनीके रौशन उजाले
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तो क्यों डरता हैं जब सबको तेरी हार ही देखनी है
तू खुदसे पूछ क्या सचमें तुझे तेरी ललकार देखनी हैं
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कामयाब तो तभी हो सकेगा जब तू बेबाक होगा
और लोगोंके तानों का समंदर तुझसे पार होगा
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अपनी जीत पर गुरूर तू भी उस रोज़ कर लेना
जब तुझे क़िस्मत का नहीं, क़िस्मत को तेरा इंतज़ार रहेगा