हम पल- पल चुक रहे हैं
शिखर से गिर रहे हैं,
नदी समान बह रहे हैं
जंगल सा कट रहे हैं।
हमरी माँगे पूरी नहीं हुयी हैं
प्यार के क्षण अनछुये रह गये हैं,
कुछ पाने की आशा में
हम धीरे-धीरे चुक रहे हैं।
उधार जितना किया है
उसे चुका नहीं पाये हैं,
अपनी लौ के साथ प्रज्वलित
विलीन होते जा रहे हैं।
हमारी कुछ रेखाएं
बदलती जा रही हैं,
हड्डियों के जाल में
मौन थकान घुसती जा रही है।
**महेश रौतेला