एक ग़ज़ल आपकी प्रतिक्रिया हेतु
हर तरफ जल रहा एक घर है
रोशनी का ये कैसा सफ़र है
झोपड़ी खेत कैसे बचेंगे
गाँव पर तो शहर की नज़र है
रोज़ बनती नयी योजना पर
भूख के सामने बेअसर है
बढ़ गयी रात की कालिमा भी
चाँदनी को अँधेरे का डर है
घर से निकलें, मगर कैसे निकलें
हादसों से भरी हर डगर है
प्यार के गीत की है जरूरत
हो रहा सुर घृणा का प्रखर है
बढ़ रही है अंधेरे की सत्ता
डूबता जा रहा भास्कर है
लवलेश दत्त
बरेली