ग़ज़ल
आदमी से आदमी का प्यार अब दिखता नहीं
त्याग करुणा और पर उपकार अब दिखता नहीं
भूख के तो दिख रहे हैं हर तरफ़ बर्तन नये
रोटियाें का पर सही आकार अब दिखता नहीं
उठ रही हर रोज़ इक दीवार आँगन में यहाँ
खिलखिलाता वो बड़ा परिवार अब दिखता नहीं
कल तलक़ तो शहर भर में था बहुत चर्चित मगर
वो तुम्हारे नाम का अख़बार अब दिखता नहीं
रोज़ आधी रात तक सड़कों पे फैला था कभी
वक़्त की आँधी में वो बाज़ार अब दिखता नहीं
लवलेश दत्त
बरेली