Hindi Quote in Poem by shalini singh

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मिल्कियत
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सुदूर गाँव में बसी ब्याहताएँ
उलाहनों के बीच
थामें रहती है चुप की चादर
सहमी सी सुनती रहती है बोल कुबोल

माँ के संस्कारों को सींचने के उपक्रम में
दिन की उठापठक के बीच भी 
निकाल लेती है शाम के धुंधलके से ठीक पहले का कुछ वक्त अपने लिये

सिंगार की परत चढ़ा कर इठला लेती है मन ही मन
उनका नाम गुम हो चुका है पति के नाम की ओट में
पुकारा जाता है उन्हे फलाने की दुल्हन के नाम से
नाम जो पहचान है वो भी तो नही मिली बिरसे में इन्हें
न इन्हें ठीक ठीक याद अपने जन्म की तारीख़
कि कोई कोरी बधाई ही दे देता इन्हें

इसी दुःख की गीली ज़मीन में वो रोप लेती हैं कुछ गीत
दुख का ज्वार जब उमड़ पड़ता है मन में
तो फूटने लगते हैं बोल
खुल जाती हैं भरे मन की गाँठे
जब गाती हैं सास मोरी मारे ननद गरियावे
खाली कर लेती हैं अपना मन
जो न जाने कब से भरा हुआ है
इन गीतों के रूपक 
पीड़ा कह लेने का जरिया थे

इनके हिस्से अक्सर नही आती
प्रसव पीड़ा में पुचकारने वाली सासें
न बेटी के पैदा होने पर साथ खड़े होने वाले पति
न घर,न खेत न खलिहान
इनका कुछ नही होता

तब इनके हिस्से आते हैं वो गीत जो ये गाती हैं
यही होते हैं इनकी मिल्कियत जो ये आगे बढ़ा देती हैं

डॉ शालिनी सिंह

Hindi Poem by shalini singh : 111500857
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