उधार की जिंदगी - लघुकथा -
"ए जी सुनते हो , ऐसे कितने दिन चलेगा? दो दिन होगया चूल्हा नहीं जला। इधर उधर से जो मिल गया रूखा सूखा उसी को खा पीकर काम चला रहे हैं।"
"अरे भागवान तू ही बता क्या करूं? थोड़ा बहुत जो भी, मुफ़्त का राशन पानी मिल रहा है |उसी से काम चला?"
"यह तो तुम भी जानते हो कि वह राशन पांच प्राणियों के लिये पूरा नहीं पड़ता।"
"मालूम है लेकिन उपाय क्या है।काम धंधा चौपट है।तुम्हारा भी घरों का झाड़ू पोंछा बर्तन का काम छूटा हुआ है।"
"मैं कुछ कड़वी बात बोलूं?"
"हाँ बोल ना, कोई काम की बात है क्या?"
"मैं सोचती हूं कुछ खर्चा कम कर दिया जाय।"
"अरे पगली अपना खर्चा तो पहले ही इतना कम है और क्या कम करेंगे।"
"गौर से सोचो, अभी भी कुछ गुंजाइश है?"
"मुझे तो ऐसा नहीं लगता? बच्चे दोनों बेचारे हर समय छोटी छोटी चीजों के लिये तरसते रहते हैं।हम दोनों भी रूखी सूखी डबल रोटी पानी से गुटक कर काम चला रहे हैं।कुछ भी कम नहीं हो सकता।"
"और बाबा का खर्चा?"
"बाबा का कौनसा बड़ा खर्चा है?"
"दिन में चार पांच बार चाय, ब्रेड बिस्कुट और दवाईयां।हम सब में सबसे अधिक उनका ही खर्चा है।और सब उधार आ रहा है| चाय ब्रेड बिस्कुट सब सामने वाले ढावे से आता है। कैसे चुकायेंगे?"
"ये बात तो सही है लेकिन इसे भी तो कम नहीं कर सकते ?"
"टपका देते हैं।"
"क्या बकती हो? कितनी बदनामी होगी। लोगों से क्या कहेंगे?"
"रेत की कच्ची दीवार थी। आँधी आयी, ढह गयी।"
तेज वीर सिंह "तेज"
पूना महाराष्ट्र