घर की दीवार से लगता वो सन्नाटा ।
जो पसरा था खुले से मैदान में ।।
सोच थी कि कोई नहीं है वहां पर ।
अनुभुति हुई कि हवा भी आकार लेती है।।
जैसे कोई पुकार रहा हो कहा रहा हो ।
अपनी अनसुलझी कहानी जो सुनाना चाहता हो।।
पर मशगूल ज़माने में गुम हाय हो गया ।
भीतर की बात अपने में ही दबाए ।
चाहत होती है की कान लगा कर सुनूँ ।
पर काम की व्यस्तता में भूल जाती हूँ कान लगाना ।
आज फिर विचार आया। आज मैं सुनकर ही रहूंगी दास्ताँ उसकी।
गयी भी उस कोने तक ।
जहाँ से वो दीवार सटी है ।
हवा का झोका फिर मेरे गालों को छू कर कहा गया आप बीती ।
अनुभूति फिर जगी ।
और सुनी उसकी कहानी मैंने।
उन तरंगो से जो हवा में तिरती है एक कसक के साथ कि चला तो गया काश की कुछ ऐसा कर जाता सोच के साथ।
पर वही जिन्दगी जीकर जो हम सभी जिए चले जाते हैं । एक उबाऊ कहानी जो हमारी कहानी से अलग नहीं ।
चलो आज कुछ नया रचते है ,जो हवा बन कर आकार ले इससे पहले
क्या कुछ नया रचा जा सकता है
विचार अच्छा है पर समय देना होगा खुद की पहचान को।
ताकि इतिहास बनने से पहले अपना खुद का इतिहास रचे ।