#गझल
कितनी बार दिखी मौत से लड़ना सीखा है
यूं ही नहीं ज़िन्दगी का फलसफा सीखा है
बगियन के फूल भी रोते होंगे मुरझाते-मुरझाते
ऐसे ही नहीं उन्होंने कांटों में खिलना सीखा है
अक्सर खो जाती है ख़ुशबू सूखे फूलों से
फिर भी गैरों के लिए उसने महकना सीखा है
ख़त्म हो जाती है ज्योती दुनिया रोशन करके
उसने आग से, आह सहकर जलना सीखा है
उड़ जाते है रंग, किसी बेवा की ज़िन्दगी से
तभी तो उसने रंगों से परेज़ करना सीखा है
शायद रोशनी बनी रहे रात के अंधेरे में भी,
ढलते सूरज के साथ चांद ने निकलना सीखा है
ज़मीं की तड़प पे बहाता होगा आसमान आंसू
मिलने कि चाहत में, उसने बरसना सीखा है
जज्बातों के भी दर्द कभी बेजुबान होते होंगे
ग़ज़ल ने इसलिए अल्फाजों में भीगना सीखा है
यहां कुछ भी नहीं है मुस्तकिल जहां मे सुविधा
मुसाफ़िर ने अपने गमों से ही हसना सीखा है.