# काव्योत्सव 2
??? गीत ???
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं |
ज़हरीली वायु का सेवन ही तो नित दिन करते हैं |
फूल में जितने दल ज़्यादा हों
उतना ही होगा कमजोर |
डगर-डगर पर नज़र आ रहे
बिखरे काँटे चारों ओर ||
भँवरे जाने इस बगिया में कैसे गाया करते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं |
बगुलों का सम्मान किया है
हंसों को दुत्कार दिया |
गीत सराहे कौवों के और
कोयल को फटकार दिया ||
दादुर की टर-टर पर देखो झींगुर खूब उछलते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||
मौन हुआ सागर तो
घटना कोई घटने वाली है |
शोर बढ़ा इतना कि अब तो
धरती फटने वाली है ||
चमक-चमक कर तड़क-तड़क कर बादल आग उगलते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||
भक्षण करता सर्प का फिर भी
ज़हरीला नहीं बनता मोर |
सन्तों के आश्रम में लेकिन
दिखते हैं बस आदमखोर ||
सिंहों की इस भूमि पर अब गीदड़ शासन करते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862