Quotes by vijay d. tiwari Ahmedabad in Bitesapp read free

vijay d. tiwari Ahmedabad

vijay d. tiwari Ahmedabad

@vijayd.tiwariahmedabad9027


याद तुम्हारी ये लाती है,
रात न जाने क्यों आती है |

शाम ढले परछाई हमसे,
चुपके-चुपके बतियाती है |

झील लगे जंगल में जैसे,
पायलिया-सी खनकाती है |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2
??? गीत ???

रोग कैसा लग गया है बाग को अब क्या बताऊँ |

फूल सब मुरझा गये हैं और खुशबू गुम हुई है,
तितलियाँ भी नाच अपना आजकल भूली हुई हैं |
बीज पृथ्वी फोड़ कर देखो की बाहर आ गया है,
नीर उसके ही लिए आँखों से अपने मैं बहाऊँ ||

क्यारियों में इस सिरे से उस सिरे तक लाल पानी,
है यही कारण की हर इक शाख ने तलवार तानी |
बो रहे काँटे तो फिर क्यों आप उनसे फूल चाहें,
ढेर है दुर्गन्ध का जो किस तरह उसको हटाऊँ ||

फूल चम्पा का हुआ है लाल जाने किस तरह से,
और भी बदलाव हैं आमूल जाने किस तरह से |
कर दिया किसने इसे बेहाल हैं वो कौन भक्षक,
नाम किन-किन रक्षकों के आज मैं तुमको सुनाऊँ ||

ज्वर बढा है धर्म का औ' बीज विष के बो गया है ,
घाव बढकर कौम का नासूर अब तो हो गया है |
एड्स भ्रष्टाचार, रिश्वत का बढा ही जा रहा है,
विश्व में तो है नहीं अब स्वर्ग से ही बैद्य लाऊँ ||

रोग कैसा लग गया है बाग को अब क्या बताऊँ |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2

??? ग़ज़ल ???

ये दर्द का हिमालय देखो पिघल रहा है |
सैलाब आ गया है दूषण निगल रहा है |

फिर से शिखा खुलेगी चाणक्य फिर उठेगा,
उस नन्द के लिए जो बगिया कुचल रहा है |

क़ुदरत का है करिश्मा या है नज़र का धोखा,
भीगे बिना नदी से कैसे निकल रहा है |

सपने दिखा गया है, सबको सुला गया है,
ख़्वाबों में ही सुनहरी देता फसल रहा है |

भँवरे ये वो नहीं हैं सौन्दर्य के उपासक,
कलियों को अब संभालो मौसम बदल रहा है |

हिम्मत कभी न हारा, थककर कभी न बैठा,
वो कर्म का पुजारी हरदम सफल रहा है |

खुशबू या जल के पीछे भागा नहीं कभी भी,
मन का हिरन हमेशा मेरा सरल रहा है |

वो हमसफ़र है मेरा, हमदर्द, हमनवा है,
वो ज़िंदगी में मेरी बनकर ग़ज़ल रहा है |

समझा दिया था मैंने तुम सावधान रहना,
लेकिन वहीं गिरा वो, अब तक फिसल रहा है |

हालात और मौसम कैसे भी आए लेकिन,
जीवन 'विजय' का यारो हरदम कमल रहा है |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2
??? ग़ज़ल ???

यहाँ रुकने से कुछ हासिल नहीं है |
ज़रा - सी छाँव है मंज़िल नहीं है |

ग़मों की इस अंधेरी ज़िन्दगी में,
ख़ुशी की रोशनी दाख़िल नहीं है |

नुमाइश मत लगा ज़ख़्मों की अपने,
यहाँ पर कोई भी आदिल नहीं है |

शहर में गाँव से आया है लेकिन,
न आँको कम उसे जाहिल नहीं है |

मुकर जाऊँ किसी से करके वादा,
मेरी फ़ितरत में ये शामिल नहीं है |

सरलता, सादगी जीवन है उसका,
बहुत सीधा है पर ग़ाफ़िल नहीं है |

सिफ़ारिश है न आती हो खुशामद,
समझ ले तू किसी काबिल नहीं है |

लगेगा मन यहाँ पे कैसे अपना,
ग़ज़ल, गीतों की ये महफ़िल नहीं है |

रुके तो डूब जाओगे 'विजय' तुम,
यहाँ मझधार है साहिल नहीं है |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2
??? ग़ज़ल ???

ये कैसा करिश्मा है हैराँ है नज़र देखो |
बरसात के मौसम में जलता है शहर देखो |

हर हाथ में ख़जर है सीनों में ज़हर देखो,
बहता है लहू हर सू अब चाहे जिधर देखो |

दुनिया ने सताने में छोड़ी न कसर देखो,
मर जाउँगा सोचा था ज़िन्दा हूँ मगर देखो |

इस दौर के मंज़र तो हद दर्जा निराले हैं,
पीती है नदी पानी फल खाए शजर देखो |

वह डूब गया है तो इल्जाम न दो मुझको,
रोका था बहुत मैंने आगे है भँवर देखो |

साँपों की न हो बातें विषधर न वही केवल,
इस दौर का इन्साँ भी उगले है ज़हर देखो |

बनता है महल जिसके हाथों से वही अक्सर,
आकाश तले जीवन करता है बसर देखो |

सौ जुल्म किए मुझपर दीवाना कहा मुझको,
अफ़सोस सचाई की, कैसी है डगर देखो |

पहले तो न ऐसा था अब जाने हुआ क्या है,
मरते थे जो हम पर वो ढाते हैं कहर देखो |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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??? गीत ???

नफ़रत, द्वेष, घृणा की ज्वाला में सब कुछ जल जाएगा |
चारों ओर मचा है हाहाकार कौन बच पाएगा ||
कौन यहाँ बच पाएगा,
कोई नहीं बच पाएगा |

कच्ची कलियाँ रौंद रहा है रोको उस हैवान को |
रखवाले बनते हो तो फिर खत्म करो शैतान को ||
बात बहुत बढ-चढ करते थे तुम वो वादे याद करो |
आश्वासन देते थे की तुम हमसे तो फ़रियाद करो ||

सुनलो अब फ़रियाद नहीं तो सिंहासन उड़ जाएगा
चारों ओर मचा है हाहाकार कौन बच पाएगा ||
कौन यहाँ बच पाएगा,
कोई नहीं बच पाएगा ||

अन्धा है धृतराष्ट्र तभी तो दहशत चारों ओर है |
दुर्योधन, दु:शासन का आतंक महा घनघोर है ||
शकुनी को पहचान यही तो कपटी है ये छलिया है |
राजसभा ये है दुष्टों की ये दुष्टों की दुनिया है ||

स्वार्थ, ममता, लालच, माया, मोह में ही लुट जाएगा
चारों ओर मचा है हाहाकार कौन बच पाएगा ||
कौन यहाँ बच पाएगा,
कोई नहीं बच पाएगा |

धर्म के ठेकेदारों पर तुम मत अन्धा विश्वास करो |
मानवता का कत्ल करा दे उनका मत विश्वास करो
बहकावे में मत आओ अब तो सतर्क हो जाओ तुम
काबिल नहीं हैं ये यक़ीन के अब तो आँखें खोलो तुम ||

झूठे, मक्कारों के चक्कर में तू भी फँस जाएगा |चारों ओर मचा है हाहाकार कौन बच पाएगा ||
कौन यहाँ बच पाएगा,
कोई नहीं बच पाएगा |

न्याय यहाँ अन्धा था पहले अब बहरा गूंगा भी है |
धन की छम-छम के आगे झुकता भी है बिकता भी है ||
सबकुछ है व्यवसाय यहाँ पर नैतिकता का पतन हुआ |
धन-वैभव के आगे सारी मानवता का पतन हुआ ||

तार-तार है शील और मर्यादा को छल जाएगा |
चारों ओर मचा है हाहाकार कौन बच पाएगा |
कौन यहाँ बच पाएगा,
कोई नहीं बच पाएगा |

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# काव्योत्सव 2
??? गीत ???

लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं |
ज़हरीली वायु का सेवन ही तो नित दिन करते हैं |

फूल में जितने दल ज़्यादा हों
उतना ही होगा कमजोर |
डगर-डगर पर नज़र आ रहे
बिखरे काँटे चारों ओर ||
भँवरे जाने इस बगिया में कैसे गाया करते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं |

बगुलों का सम्मान किया है
हंसों को दुत्कार दिया |
गीत सराहे कौवों के और
कोयल को फटकार दिया ||
दादुर की टर-टर पर देखो झींगुर खूब उछलते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||

मौन हुआ सागर तो
घटना कोई घटने वाली है |
शोर बढ़ा इतना कि अब तो
धरती फटने वाली है ||
चमक-चमक कर तड़क-तड़क कर बादल आग उगलते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||

भक्षण करता सर्प का फिर भी
ज़हरीला नहीं बनता मोर |
सन्तों के आश्रम में लेकिन
दिखते हैं बस आदमखोर ||
सिंहों की इस भूमि पर अब गीदड़ शासन करते हैं |
लोग न जाने इस दुनिया में कैसे जिन्दा रहते हैं ||
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2
??? अखण्ड भारत ???

बालक जान मुआफ किये हम ये एहसास उन्हें भी करा दें,
शायद वो फिर भूल गये हैं तो तेवर भारत के समझा दें |
भारत में रहना हो उन्हें तो हम भारत की तहज़ीब सिखा दें,
गाँव गली हर एक नगर से जयचन्दों को मार भगा दें |

भारत में रह के परदेश के गीत जो गाएँ उन्हें हम भगा दें,
आपस में मिल के रहना है तो भेद तमाम दिलों के मिटा दें |
बात नहीं तुम मानो तो हम मार के लात धरा में मिला दें,
चाहिए वाद विवाद नहीं फिर तो बस तोप बढा के चला दें |

फूल रहे जिनके दम पे तुम वो हथियार तुम्हीं पे चला दें,
कूद रहे बम एक बना के तो बात तुम्हें यह याद दिला दें |
कण-कण भारत की इस धूल का एक अणुबम है ये बता दें,
हालत पैंसठ और इकहत्तर जैसी ही फिर इक बार बना दें |

भारत का कश्मीर है भारत का ही रहेगा ये बात बता दें,
भारत का ध्वज जो भी जलाएगा हाथ समेत उसे भी जला दें |
युद्घ हुआ इस बार तो भारत को फिर राष्ट्र अखण्ड बना दें,
हर-हर, बम-बम बोल के झण्डा ये रावलपिंडी में फहरा दें |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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# काव्योत्सव 2
??? भारत ???
पाँव पखारे जहाँ जलधि वह विश्व में एक धरा है ये भारत,
बाँह पसार के तान के सीना उठाकर शीश खड़ा है ये भारत |
धारण ताज हिमालय का कर राजाधिराज बना है ये भारत,
संस्कृति के सर्वोच्च शिखर पर एक ही देश हुआ है ये भारत |

भारत राम और कृष्ण की भूमि है, नानक औ' रहमान है भारत,
ग़ालिब, मीर, कबीर, रहीम सभी रस का रसख़ान है भारत |
वीर पितामह भीष्म हुए यह वीरों की आन और शान है भारत,
गूँज सुनाई दे मन्त्र अजान की वेद पुरान कुरान है भारत |

पत्थर ,भूमि,पहाड़,नदी को भी मानव रूप दिलाता है भारत,
ज्ञान की खोज में जो भटके हैं उन्हें सही राह बताता है भारत |
मानव धर्म बड़ा है सभी से करें सभी प्यार सिखाता है भारत,
आदिम काल से आज तलक यह पाठ जहाँ को पढाता है भारत |

मानव-मूल्य और मानव जीवन की बहुमूल्य धरा है ये भारत,
पाँव पड़े जब भागीरथी के तो पावन और हुआ है ये भारत |
आकर जन्नत को रहना हो तो एक उपाय कहा है ये भारत,
शाम सुबह वह मन्त्र जपे यह भारत, भारत, भारत, भारत |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862

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???ग़ज़ल???
ये कैसी आग में झुलसा दिया तुमने बहारों को,
धुएँ के नाग काले डस रहे रंगीं नज़ारों को |

अगर नफ़रत मिटाना चाहते हो तुम दिलों से तो,
ये हिन्दू वो मुसलमाँ है मिटा दो ऐसे नारों को |

नई दुल्हन की डोली को शहर की भीड़ में लूटा,
दिया हमने ही रहकर मौन ये साहस कहारों को |

हिफ़ाज़त चाहते हो तो सजग रहना जरूरी है,
न गुजरे सर से पानी बाँध दो पहले किनारों को |

अगर ये चाहते हो तुम चमन में फिर बहार आए,
खिलाकर फूल चाहत के, बुलावा दो बहारों को |

अधूरा इल्म लेकर जो उजालों में रहे कल तक,
वही अब दे रहे हैं आज गाली चाँद - तारों को |

अगर अरमान हैं दिल में भरोसा बाजुओं पे है,
तो दुनिया रोक क्या पायेगी ऐसे जाँ-निसारों को |

हमें है जान से प्यारा ज़मीं का स्वर्ग ये अपना,
न देंगे हम किसी क़ीमत पे जीते जी चिनारों को |

'विजय' तुम वो सुखनवर हो जो पत्थर दिल को पिघला दे,
तुम्हें सुनकर बड़ी राहत मिली हम ग़म के मारों को |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल -9427622862

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