कविता - माँ गंगा
हिमाद्रि तुंग से तू निकलती
निर्मल निर्झर कलकल करती
शिखर से धरा पर उतरती
नित दिन अनवरत बहती
भारत भूमि को धन्य करती
करोड़ों की तृष्णा मिटाती
खेतों को जब सींचती
अन्नपूर्णा तू बन जाती
पर हमने तेरे लिए क्या किया
तेरा उचित सम्मान न किया
तुझे मलिन कर दूषित किया
तेरे अस्तित्व को संकट में किया
माँ एक और अवसर दे कर
हम सब को तू कृतार्थ कर
दिखाएंगे एक संकल्प ले कर
तुम्हें पुनः निर्मल स्वच्छ कर
प्रार्थना है शीश नमन कर
सुन ले माते कृपा कर
हमारी भूल को भूल कर
गंगे हमें क्षमा प्रदान कर