#काव्योत्सव२
आदत सी हो गई है...
उन बातो मे तुम्हारा रेहना,
अब ना रेहने सा हो गया है !
जीस कमी की जरूरत तुम होती..!
आज उसीको बिनजरूरि मानने की आदत सी हो गई है|
उन रातो में तुम्हारा बनना,
अब भूलना सा हो गया है !
नीन्द जो सासों बिना ना आती..!
आज खूदकी सासो की आदत सी हो गई है|
उन घन्टो की बातो में एक दुसरे को ढूडना,
अब अजनबी सा हो गया है!
पलपल की जूदाई जो सहन ना होती..!
आज उसी पल बिना जीने की आदत सी हो गई है|
उन खेल मे खुदको मेरी जूबान में लाना,
अब वही खेल दुसरो सा हो गया है!
उठते ही जो महेफिल हमारी होती..!
आज उसी महेफील मे मेरे ना होने की आदत सी हो गई है|
उन नामो मे मेरे आते ही होठो की मुस्कान बनना ,
अब बेहते आँसु सा हो गया है!
जीसके बिना दुनिया ना जिती..!
आज उसी दुनिया से जीत की आदत सी हो गई है|
उन गुस्सो मे जो प्यार समाना,
अब नफरत ही प्यार सा हौ गया है!
बेज्जति जिसकी बरदास्त ना होती..!
आज वही बेज्जति की आदत सी हो गई है|