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बाबूजी का श्राद्ध
श्राद्ध पक्ष में बाबूजी का ग्यारस का श्राद्ध निकालना था । दो दिन पहिले ही पंडित जी को न्योता दे दिया था । उस दिन सुबह जब याद दिलाने के लिये उन्हे फोन किया तो, वे कहने लगे,” मुझे तो बिल्कुल समय नहीं है , दूसरी जगह से भी न्योता है,पहिले वहाँ जाऊँगा । आपके यहाँ तो शाम को ही आ पाऊँगा " । क्या करते आजकल पंडित मिलते कहाँ हैं सो मानना पड़ा । थोड़ी देर में उन्ही का फोन आया बोले," खाने का इन्तजाम टेबिल-कुर्सी पर कीजियेगा और दक्षिणा में कम से कम सौ रुपये के साथ पाँच वस्त्र भी मंगवा लीजियेगा । "
हम सभी का सिर चकरा गया । सभी सोच में पड़ गये कि क्या करें ? श्राद्ध का खाना तो हम सुबह ही खिलाना चाहते थे । माँ का कहना था ," जब तक श्राद्ध निकाल कर पंडित जी को भोजन ना करा दें घर का कोई सदस्य भोजन नहीं करता है ,ऐसी परम्परा है "।
थोड़ी देर में देखा कि घर के द्वार पर एक दीन-हीन बूढ़ा आदमी निढ़ाल अवस्था में बैठा था और कह रहा था-"मैं बहुत भूखा हूँ--,कई दिनों से ठीक से खाना भी नसीब नहीं हुआ ,कुछ खाने को देदो ।" उस पर बड़ी दया आ गयी । उसे घर के अहाते में बैठा कर आग्रह पूर्वक खाना खिलाया । वह भरपेट खाना खाकर और पानी पीकर ,ढ़ेर सारी आशीष देता हुआ चला गया । उस दिन लगा आज बाबूजी का श्राद्ध ठीक से सम्पन्न हुआ ।
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