"फर्क कुछ इतने रहे उसके मेरे दरमियाँ ।
मै मूरत रहा सच की, वो जाल फरेब का बुनती रही ।।
उसे कभी फलक पर बिठाया था हमने बड़े नाज़ से।
वो कदम दर कदम नजरों से गिरती रही।।
मैने खोकर खुद को उसका हो गया. . वो दौड़ मे थी. . . . . जमाने की. ! !
वो मेरी तो क्या ? ? ? कहीं का न रही"।।