हुई अज़ानें मगरिब की आवाजे घर में जाती थी,,
पंडित के घर की भी औरत तभी दिया जलाती थी,,
कल हम पंडित के लौटे से वुज़ू बनाया करते थे,,
मन्दिर में जाकर बच्चे प्रसाद चुराया करते थे,,
सुख दुख हो या शादी मय्यत सब में साथ निभाते थे,,
जाति धर्म का फर्क नही था सब रिश्ते में आते थे,,
अब मन्दिर की दीवारे है क्यूँ मस्जिद के मीनारे,,
खत्म हुआ सब प्यार मोहब्बत हाथ में सबके तलवारे है,,
इन नेताओं के चक्कर मे रिश्ता हमारा छूट गया,,
ईद दिवाली और होली अब साथ मनाना छूट गया,,
मन्दिर मस्जिद के नामों पर अपनो को ही काटा है,,
खून में कोई फर्क नही बस राजनीति ने बाटा है!!!***