आज फिर रिस्तो का दिया जलाते हे,
चलो इस जहा को फिर रोशन बनाते हे।
गीले शिकवे तो यार अपनों से ही होते हे,
आओ फिर मिलके उन रूठे को मनाते हे।
जग सारा माहिर हे खीचने लकीर रिस्तो में,
हम तुम मिलके उन्हें रिस्तो का पाठ पढ़ाते हे।
हम इन्सान रहते हे इंसानो की बस्ती में,
एक दूजे से बेर भुलाकर आपस में सुलजाते हे।
अगर ना बने गैरो से रिश्ते कोई बात नही,
जो अपने हे उनसे सदा अपनापन निभाते हे।
आज फिर रिस्तो का दिया जलाते हे,
चलो इस जहाँ को फिर रोशन बनाते हे।
Dp,"प्रतिक"