फिर से बौना अनुभव किया मैने
संकीर्ण सोच के साथ स्वयं को।
नहीं मिला पा रहीं हूँ
चाल अपनी ज़माने से।
खुलो, वो कहते हैं
संकुचन को छोड़ दो।
लांघ लो लक्ष्मण रेखा
जो तुमने घेरी है अपने गिर्द।
फिर क्या करूँ?
शामिल हो जाओ उस छदम भीड़ में
जो दोहरे जीवन जीती है।
क्या सच में?
शामिल होना ज़रूरी है?
क्या मुझे यूँ ही स्वीकारोक्ति
नहीं मिलेगी?
अंधेरा गहरा रहा है, रात की कालिमा में
त्रिशंकु सा लटका है मन।
मुझे आसमान चाहिए,
पर धरती पे पैर टिका कर।
रुपेन्द्र राज।