#kavyotsav #ghazal
एक उम्र गुजारी है मैंने तन्हाई में
क्या एतिराज करें इस पजीराई में
एक शख्स कभी अपना लगा नहीं
ऐसी बेरुखी थी उस शनासाई में
जख्म खाकर भी भूला नहीं जिसे
कुछ तो बात होगी उस हरजाई में
एहसास -ए- पशेमानी है दिनभर
रातें भी तो कट रही है रुसवाई में
तिरे शहर में बेतहाशा भटका हूँ मैं
क्या फर्क करूँ अब सहराई में
हर शख्स याँ सिर्फ़ नासेह निकला
कोई उतरा नहीं चश्म-गहराई में
मैं तो मेरी भी नहीं सुनता कभी
उसे अना की बू लगी ख़ुद-राई में
- कमलेश खुमाण 'मुंतज़िर'