#kavyotsav #ghazal
खिज़ां से यारी निभाने जिंदगी से मिरी बहार निकली
ख़लिश-ए-नीमकश-ए-पैकान मगर आरपार निकली
शुआ-ए-तकल्लुम भी ज़र्द हो गई वर्क़-ए-ख़ुतूत सी
तिरी यादें भी जैसे तिरी तरह ही मुस्तआ'र निकली
कभी गुलज़ार थी जमीं-ए-क़ब्ल तिरी मौजूदगी से
तुझे हटाकर देखा तो दूर तलक संग-ज़ार निकली
असीरी मंजूर थी मुझे, मैं ता-उम्र तुझमें ही रह लेता
जंजीर-ए-क़फ़स तिरी मगर बडी तार-तार निकली
नक़ाब तो बड़ें रंगीन सजा रखें थे क़ातिल ने मिरे
बरहना ख़ंजर दस्त-ए-यार मगर आश्क़ार निकली
हम तो 'मुंतज़िर' हैं यूंही इन्तिज़ार में खड़ा पाओगे
हवा के संग उड गई गर्द भी तुझसी पुरकार निकली
- कमलेश खुमाण 'मुंतज़िर'