#kavyotsav #ghazal
गढ़े मुर्दों को जिंदा क्यों करूँ
मैं तुम्हें शर्मिंदा क्यों करूँ
अब तुमसे मिलकर ख़ुद को
याँ अज़ा-कुनिंदा क्यों करूँ
ईश़्क ही था, तिज़ारत न थी
तो तुझे फ़रोशिंदा क्यों करूँ
तुम ख़ुद ही तोड़ चुके हो
रब्त को बुरिंदा क्यों करूँ
फ़ुर्क़त में इसकदर ख़ुद को
मैं वहशी दरिंदा क्यों करूँ
मैं ख़ुद ही को जलाकर अब
तिरा कूचा ताबिंदा क्यों करूँ
नासेहो की कमी नहीं यहाँ
ख़ुद राय-दहिन्दा क्यों करूँ
वक्त हूँ मैं आगे बढ़ जाऊँगा
'मुंतज़िर' बाशिंदा क्यों करूँ
- कमलेश खुमाण 'मुंतज़िर'