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Kavita Nagar

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@kavitanagar174449


मन के एकांत में
या कोलाहल के
अवचेतन में भी
उग ही आती है
कोई हरी-भरी सी
कविता,
तनहाइयों की डाल पकड़ बैठ जाती है।
उसको बढ़ते जब-जब देखती हूंँ,
तब-तब आ ही जाता है
शब्दों पर बसंत।

    कविता नागर

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दानवों के साये।।

उधर कुछ भिन-भिन का शोर था
देखा जाकर तो भिनभिनाती हुई
कह रही थी मक्खियाँ।
सुना है बहुत घृणित चीज
निकल रही है इन दिनों
कुछ इंसानों के दिमाग से।
सुनों सब, हम इतने भी
गंदे नहीं जो वहाँ जाकर बैठे।

इधर कुछ सुअर चिल्लातें हुए
जा रहे थे,हमें क्या समझ रखा है
इतने भी बैगेरत नहीं हम
जो साफ कर सके इतनीे गंदगी।
ये हमारे बूते के बाहर की बात है।
इनके दिमाग में तो इल्लियां भी
नहीं पैदा होती,किताने तेजाबी
इरादें है,इनके।

उधर पृथ्वी जता रही थी
अक्षमता,यह कहकर कि
मैं मजबूर हूंँ
अपनी ही कोख के गुरुत्वाकर्षण से
वरना फेंक देती इन्हें अधर में।

वे कुछ शब्द भी हो रहे थे लज्जित
अपने बार-बार उपयोग से।
कोस रहे थे अपने अस्तित्व को
नन्हीं कलियों पर आँसू बहाते हुए।

चिंता में है सारी माँयें।
कि फैले हैे दानवों के साये।

सब सोच रहे थे कि क्यों
नहीं है कोई नृशंस लोक
जहाँ भेज दिया जाए
इन्हें, इनके जीवित रहते हुए ही।
काश इन्हें पहचानने की भी
कोई तकनीक हम कर पाते इज़ाद।
       
     कविता नागर

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घुड़दौड़!!

इस प्रतिस्पर्धा की घुडदौड में
मैं हमेशा हार जाती हूंँ।

ला नहीं पाती मैं तीव्र
भावनाओं का ज्वार।
कर नहीं पाती मै ऐसा
विनिमय व्यापार,
खुद को ऐसी परिस्थितियों में सदा
गंवार पाती हूंँ।

इस भावनाओं की घुडदौड मै
हमेशा हार जाती हूंँ।

बो नहीं पाती मै बीज
संभावनाओ के
सदा ही ह्दय के आगे
खुद को लाचार पाती हूंँ।

इस नित नयी घुडदौड मे
मै हमेशा हार जाती हूंँ।

झपकाओ जो पलक युग बीत
जाते है।
हम रहे वही सदा लोग जीत जाते है।
चलायमान सब यहाँ,
स्थावर मै हो जाती हूंँ।

जाने क्यों सब लगते खरगोश
कछुआ मैं हो जाती हूंँ।
इस नित नयी घुडदौड में
मै हमेशा हार जाती हूंँ।
    कविता नागर
 

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#KAVYOTSAV -2
एक यंत्र!!

गाँव के पास वाले शहर से
होने के कारण समाज में सबसे
ज्यादा पढ़ीलिखी थी।

उच्च शिक्षा प्राप्त करके सोचती थी
नौकरी लग जाए,
इस बीच आने लगे बड़े घरों के रिश्तें।
उसने भी सोचा क्या बुरा है
शादी करके ये सब देख लिया जाएगा।
उन अनपढ़ औरतों में
सबसे ज्यादा मान तो उसे ही दिया जाएगा।
सुंदर और सुशिक्षित है वो,
बनकर रहेगी पतिप्रिया।

पति का प्यार था सुर्ख गुलाब
मगर जिसकी पंखुडियां चारदिनों
में ही झड़ गयी।
नजर आने लगे
सामंजस्य न बैठा पाने के शूल।
ऊपर से मनमौजी लड़की की
स्वभाव गत भूल।

पति से मिली ताकीद
घर पर रहकर सब संभालोगी
तो मुझे भाओगी।
यूं भी इतने बड़े घर
में बाहर जाने का तुम वक्त कहाँ पाओगी।

मनमसोस कर
अरमानों की पोटली बांध
उसने छिपाकर रख दी।
खुद को करने लगी तैयार
सुघड़ गृहिणी बनने के लिए।
इस बीच माँ भी बनी,
अकेले और काम के बीच
अपरिपक्वता का कैशोर्य
उसपर अक्सर दिखता।
झल्लाहट से भरी रहती।

धीरे-धीरे आखिर सोते जागते
जपती रहती कामों की माला।
नींद में भी देखती सारे काम
निपटाने के सपने।
हँसना बोलना अब पसंद नहीं था।

जो कभी कहा करती थी कि पुरानी
औरतें मशीन की तरह काम करती थी।
अब वो खुद ही बन चुकी थी एक यंत्र
हाँ दक्ष दिखने के लिए
करती रहती थी खुद पर रंगरोगन।
आजकल आवाजें भी निकालती
है कराहने की सी सी करते हुए।
जैसे मशीन करती है चरचूँ।
और खुद को गुनगुनाती है
एक कर्कश गीत की तरह।

खुद पर है गुमान
उसके पास सब काम निपटाने का मंत्र है।
मगर उसे अहसास ही नहीं
वह खुद एक सुसज्जित यंत्र है।

कविता नागर

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#KAVYOTSAV -2
वो लड़की!!

उसके सपनों के गलियारे में आज भी आती है
चुपचाप सी घूमती हुई एक लड़की।
फुसफसाते हुए अरमान लिए।
गहन संवेदनाओं से घिरी हुई,
मन पर लादे हुए हिदायतों का बोझ।

मन में बस एक चाह,
शिक्षा की उंगली पकड़कर
अपनी पहचान बनाने की।
जो कि उसके लिए आसान कतई नहीं था।

गरीबी की तंग गलियों में
सपने अक्सर टूटा करते है,
खासकर लड़कियों के।
उनके सपने अक्सर परिवार को
काला नाग दिखाई देते है।
वे उनका फन अधिकतर कुचल दिया करते है।

फिर भी उसने अपनी अद्भुत बुद्धि
की रोशनाई झोपड़ी में फैलाई,
और मन की फटी चादर पर,
अपने सपनों का पैबंद लगाकर बढ़ चली।

उसके मन पर था,
हिदायतों का बोझ
जो कभी उतरा ही नहीं।
दिमाग में लक्ष्य के लिए सतर्क नसें।
शरीर पर था दबाव
कम आक्सीजन में पहाड़ चढ़ने की तरह।

इसके बावजूद भी अपने अटूट
और अथक प्रयासों से,
उसने अपनी मंजिल को पाया।
उम्मीदों के शिखर पर उसने
बुद्धिमत्ता का ध्वज फहराया।

आज भी जब वो करती है
आसमानों की सैर,
नहीं भूलती उस धूमिल सी
दुविधाओं से घिरी लड़की को।
सपनों में भी उसे वो ही
निरीह लड़की दिखाई देती है,
जो अपने घायल से मन पर,
सपनों का लेप लगाया करती थी।
कविता नागर।

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श्रंद्धाजलि??

आज हवा में है माँसल गंध
क्षतविक्षत अहसास सारें।
फूल,पत्ते आतंकित है,
कल कोई उन पर
रक्त का छिड़काव कर गया।
गुलाब अपने ही रंग पर
लजा रहा है।

केसरिया लपटों में
लिपटी थी कल केसर सी घाटी।
वादियां, झरने सब सजग हो,
शोर मचाने की कवायद
किए जा रहे है।

हरबार एक एक वार,
और दिल से आती चीत्कार।
चेहरा है वो भारत का,
जिस पर हमेशा आते रहे है,
जले के निशान।

उन्हें कितना चाव रहा होगा,
मातृभूमि के लिए लड़ने का,
इल्म भी नहीं रहा होगा,
मौत आएगी यूँ दबे पांव।
शौर्य और पराक्रम,
कितना नुकसान करा बैठा।

उधर क्या हाल हो रहा होगा
उनका,
जिनकी यादों में एकाएक,
बसंत से ताउम्र का पतझड़ आ गया है।
कविता नागर

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#पलाश
गिर गए जब पत्ते वृक्षों के,
तब लद गए पुष्प पलाश।
कानन की आभा भी निखरी,
जब दहके पुष्प पलाश।
बसंत के सदा स्वागत उत्सुक,
रहते पुष्प पलाश।
बिना नीर के भी पनपें ये
मनमौजी वृक्ष पलाश।
केसरिया सी आभा शोभित
करते पुष्प पलाश।
मन मेरा तुमसा हो जाए,
तुम ही बसंत पलाश।
        कविता नागर

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जुगनू

टिमटिम करता मन का जुगनू,
जब जीवन में हो अंधेरा,
निराश  नहीं होना है,साथी
रात के बाद आता है,सबेरा।
मन में सुंदर भाव जगाता,
दिशा दिखाकर फिर उड़ जाता,
भावों को देता है प्रकाश,
उड़े चलो जहाँ अनंत आकाश।
कृत्रिमता की नहीं है छाया,
ये प्रकाश स्वयं से आया।
सुंदर मद्धिम विशिष्ट प्रभा,
मन की भी हो ऐसी आभा।

       कविता नागर

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अनुभव..
लिखती हूँ, अनुभव जीवन के,कुछ सुलझे कुछ उलझे मन के..
जिंदगी है,एक किताब कि हर पन्ना कुछ कहता है,
ये पन्ने पलटते जाते,रह जाते अनुभव जीवन के,
कुछ पन्ने सुनहरे चमके,हाँ कुछ रह जाते धूमिल से..
लिखती हूँ, अनुभव जीवन के,कुछ तेरे,कुछ मेरे दिल के।
कभी कभी आंधी सी आए,ये पन्ने कैसे फड़फड़ाए..
होता तुषारापात कभी तो,कैसे ये जीवन मुरझाए।
किसी किसी को दे जाते है,बहुत ही कटु अनुभव जीवन के..
जिसका कोई संगी ना साथी,ये साक्ष्य उसके अकेलेपन के।
लिखती हूंँ अनुभव जीवन के तेरे मेरे पाणिग्रहण के।
तेरी मेरे इस प्रेमांकुर के,और.पल्लवित आशावृक्ष के।
जीवन की इस यात्रा में ये गवाह, मन की उलझन के..
लिखती हूँ, अनुभव जीवन के,कुछ प्रौढ़ के,कुछ बचपन के।कुछ शीत ऋतु से ठंडे, और कुछ ग्रीष्म सी तीखी चुभन के।

    कविता नागर

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