दानवों के साये।।
उधर कुछ भिन-भिन का शोर था
देखा जाकर तो भिनभिनाती हुई
कह रही थी मक्खियाँ।
सुना है बहुत घृणित चीज
निकल रही है इन दिनों
कुछ इंसानों के दिमाग से।
सुनों सब, हम इतने भी
गंदे नहीं जो वहाँ जाकर बैठे।
इधर कुछ सुअर चिल्लातें हुए
जा रहे थे,हमें क्या समझ रखा है
इतने भी बैगेरत नहीं हम
जो साफ कर सके इतनीे गंदगी।
ये हमारे बूते के बाहर की बात है।
इनके दिमाग में तो इल्लियां भी
नहीं पैदा होती,किताने तेजाबी
इरादें है,इनके।
उधर पृथ्वी जता रही थी
अक्षमता,यह कहकर कि
मैं मजबूर हूंँ
अपनी ही कोख के गुरुत्वाकर्षण से
वरना फेंक देती इन्हें अधर में।
वे कुछ शब्द भी हो रहे थे लज्जित
अपने बार-बार उपयोग से।
कोस रहे थे अपने अस्तित्व को
नन्हीं कलियों पर आँसू बहाते हुए।
चिंता में है सारी माँयें।
कि फैले हैे दानवों के साये।
सब सोच रहे थे कि क्यों
नहीं है कोई नृशंस लोक
जहाँ भेज दिया जाए
इन्हें, इनके जीवित रहते हुए ही।
काश इन्हें पहचानने की भी
कोई तकनीक हम कर पाते इज़ाद।
कविता नागर