श्रंद्धाजलि??
आज हवा में है माँसल गंध
क्षतविक्षत अहसास सारें।
फूल,पत्ते आतंकित है,
कल कोई उन पर
रक्त का छिड़काव कर गया।
गुलाब अपने ही रंग पर
लजा रहा है।
केसरिया लपटों में
लिपटी थी कल केसर सी घाटी।
वादियां, झरने सब सजग हो,
शोर मचाने की कवायद
किए जा रहे है।
हरबार एक एक वार,
और दिल से आती चीत्कार।
चेहरा है वो भारत का,
जिस पर हमेशा आते रहे है,
जले के निशान।
उन्हें कितना चाव रहा होगा,
मातृभूमि के लिए लड़ने का,
इल्म भी नहीं रहा होगा,
मौत आएगी यूँ दबे पांव।
शौर्य और पराक्रम,
कितना नुकसान करा बैठा।
उधर क्या हाल हो रहा होगा
उनका,
जिनकी यादों में एकाएक,
बसंत से ताउम्र का पतझड़ आ गया है।
कविता नागर