गर्भकाल में माता के भाव
गर्भावस्था में माँ की सांस से शिशु की सांस होती है। माँ की हर आस से शिशु कि आस होती है। माँ उदास हो तो शिशु भी उदास होता है। माँ प्रसन्न हो तो शिशु भी प्रसन्न है। माँ के हर आँसु के साथ शिशु को दुःख का भाव पहुंच जाता है। माँ की हर मुस्कान के साथ शिशु आनंदित हो जाता है। नौ माह में माँ का स्वभाव शिशु के जीवन भर का स्वभाव निश्चित कर देता है। अतः गर्भवती कितना आनंदमय व सकारात्मकताओं से भरा जीवन जीती है यह शिशु के संपुर्ण जीवन के लिए महत्वपुर्ण है।
जब गर्भ में संतान होती है, तब माता जैसी सात्त्विक, राजस, तामस भावना से भावित रहती है, जैसा अच्छा-बुरा देखती, सुनती, पढती, खाती-पीती है, उन सबका गर्भ में स्थित संतान पर प्रभाव पडता है। शिशु प्रत्येक क्षण माँ से प्रशिक्षित होता रहता है।
मिट्टी के बनते हुए बर्तन में जो चित्र खींच दिया जाता है, वह चित्र कभी नहीं मिटता। इसी तरह मनुष्य के बचपन में या गर्भ में स्थित रहने पर जो संस्कार डाला जाता है, वह अमिट हो जाता है।
गर्भस्थ संस्कारों के अलावा जन्मोपरांत पारिवारिक, सामाजिक एवं साथ संगत के संस्कारों का प्रभाव भी महत्वपुर्ण होता है, पर गर्भस्थ शिशु पर किये संस्कार नींव की तरह होते है। जो आजीवन महत्वपुर्ण भुमिका निभाते है। गर्भस्थ समय में हुये सकारात्मक व शुध्द संस्कार जन्मोपरांत होने वाले नकारात्मक व अशुध्द संस्कारो का प्रतिकार करने में सक्षम होते है। अत: गर्भवती यह ध्यान रखे कि नौ माह में गुजरने वाली प्रत्येक घडी में वह अकेली नही उसका शिशु व उसका भविष्य उसके संग है। अतः शिशु के खातिर अनेक बातें जो उचित न हो उसका त्याग कर, अनेक उचित बातें जो अब तक अपनायी न हो, उनको स्वीकार करे। केवल अपने लिए ही नही, शिशु के लिए दोहरा जीवन जिये।
माटी का घडा बनाते समय घडे पर जो चित्र रेखांकित किया जाता है उसे मिटाया या बदला नही जा सकता। उसी तरह गर्भ में प्राप्त संस्कार तथा संकल्प भी मनुष्य के जीवन से मिटाये या छिने नही जा सकते।
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सुप्रसिध्द अभिमन्यू चरित्र
देवताओं ने चन्द्रमा से कहा था कि पृथ्वी पर आसुरी भाव फैलाने के लिये कलियुग दुर्योधन के रूप में और उसके सौ भाई पुलस्त्य के वंश में उत्पन्न राक्षसों के अंश से उत्पन्न हुए हैं, अतः देवता भी मनुष्य के रूप में अवतीर्ण हुए हैं और हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में आप पृथ्वी पर स्वयं या अपने पुत्र को मनुष्य के रूप में उत्पन्न करें। चन्द्रमा के पुत्र का नाम वर्चा था। चन्द्रमा अपने पुत्र को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने कहा “विश्व के हित के लिये अपने पुत्र वर्चा को हम पृथ्वी पर भेज रहे हैं, किंतु हमें यह अत्यन्त प्यारा है, इसे देखे बिना हमारा मन नहीं लगता, इसलिये सोलह वर्ष से अधिक यह पृथ्वी पर न रहने पाये। सोलह वर्ष में फिर वर्चा के रूप में हमारे पास आ जाये।” यही वर्चा अर्जुन की प्रिय पत्नी सुभद्रा से अभिमन्यु के रूप में उत्पन्न हुआ था।
सुभद्रा का रूप लावण्य इतना आकर्षक था कि उसे देखते ही अर्जुन मोहित हो गये। कृष्ण तो चाहते ही थे कि हम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से करें। अत: उन्होंने अर्जुन को राय दी कि तुम सुभद्रा को लेकर चले जाओ, यह क्षत्रियों के लिये शोभादायक विवाह है। अन्त तक भगवान् श्रीकृष्ण ने सुभद्रा का अर्जुन के साथ विवाह में पूर्ण सहयोग दिया। सुभद्रा अर्जुन के साथ हस्तिनापुर चली गयी। वहाँ वह गर्भवती भी हो गयी। अर्जुन चाहते थे कि सुभद्रा के गर्भ में जो शिशु आया है, वह हमारी तरह ही महान् पराक्रमी बने। युद्ध में अनेक व्यूह बनाये जाते है, जिसमें चक्रव्यूह के भेदन की सब विधियाँ सुभद्रा को बता दी, किंतु भवितव्यता से सुभद्रा को बीच में ही नींद आ गयी और वह चक्रव्यूह से निकलने की विधि न सुन सकी। क्युंकि गर्भावस्था में जो माँ करती है उसी का अनुकरण शिशु करता है।
स्वयं अभिमन्यु ने युधिष्ठिर से कहा था– हम चक्रव्यूह का भेदन तो जानते हैं, किंतु निकलने का मार्ग हमको नहीं मालूम है यही कारण है कि सोलहवें वर्ष में अभिमन्यु को पृथ्वी छोडकर फिर चन्द्रलोक में अपने पिता के पास जाना पडा। चक्रव्यूह के भेदन में अभिमन्यु ने जो पराक्रम दिखलाया, वह इतिहास के पन्नों में अमिट बना हुआ है।
इस तरह गर्भावस्था में चक्रव्यूह - भेदन की सीखी हुई अभिमन्यु की इस संस्कार कथा में हमें प्रेरणा मिलती है कि गर्भावस्था में प्राप्त ज्ञान शिशु के जीवन में भी संस्कारित रहता है। हम लोग भी किसी जीव के गर्भ में आ जाने पर पूर्ण सचेत रह कर उस पर अच्छे-से अच्छा संस्कार डालें।
संसार में आने के बाद जीवन एक चक्रव्युह की तरह है। इस चक्रव्युह का भेदन कर शिशु उच्चस्तर का जीवन जिए एवं अपने माता पिता का, कुल का, धर्म का एवं राष्ट्र का नाम उँचा करें, ऐसे ही जीवन शैली को स्वीकार गर्भवती करें। हमारे "गर्भवती अंतर्मन की प्रार्थना" में, ऐसे ही जीवन शैली का प्रशिक्षण है।
गर्भावस्था में देवर्षि नारद के भक्त प्रह्लाद को उपदेश
देवर्षि नारदजी को प्रजापति दक्ष के शाप से निरन्तर चलना पडता था। इसलिये नारदजी प्रत्येक क्षण चाहे पृथ्वी हो, चाहे आकाश हो, चाहे पाताल हो सर्वत्र भ्रमण करते हुए भगवान् का गुणानुवाद करते थे। एक बार नारदजी भगवान् का गुणकीर्तन करते हुए पृथ्वी से देवलोक की ओर जा रहे थे। उस समय हिरण्यकशिपु का बोलबाला था, उसका अत्याचार बढा हुआ था। उसके आदेश से देवलोक खाली हो गया था । अतः देवता मनुष्य बनकर पृथ्वी पर विचरण किया करते थे। हिण्यकशिपु ने दैत्यों से कहा- तुम लोग पृथ्वी पर जाओ और वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभकर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो।
दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं, उनके तो मन की हो गयी। हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर दैत्य लोग पृथ्वी पर आकर बड़े उत्साह से यह खोजा करते थे कि कहीं कोई भगवान् का नाम तो नहीं ले रहा है। उसी समय उन्होंने नारदजी को पकड़ लिया और पूछा क्या कह रहे हो ? नारदजी हिरण्यकशिपु की प्रत्येक गतिविधियों से परिचित थे, इसलिये उन्होंने गोल-मोल शब्दों में कहा– 'जो सबका ईश्वर हैं, उसका गुणगान कर रहा हूँ।' दैत्यों ने समझा– सबका ईश्वर तो हमारा ही मालिक है, अत: उन्होंने उन्हें छोड़ दिया।
अब नारदजी ने विचार किया कि हिरण्यकशिपु अपनी तपस्या के बल पर प्रत्येक लोकपालों को वश में करके विधाता के पद को लेना चाहता है और ऐसा विधान बनाना चाहता है, जो शास्त्र के बिल्कुल उलटा हो। वह तो अपनी तपस्या से पापपुण्यादि के नियमों को ही पलट देना चाहता है। वह तो यह चाहता है कि पुण्य करने वालों को नरक मिले और पाप करने वालों को स्वर्ग।
ऐसा जानकर नारदजी बहुत चिन्तित हुए और सोचने लगे कि विषम परिस्थिति से कैसे रक्षा हो ? उनके मन में विचार आया कि हिरण्यकशिपु तो विधाता के विधान को बदलने के लिये तपस्या करने चला गया है और उसकी पत्नी कयाधू गर्भवती है, अतः गर्भस्थ शिशु पर ऐसा संस्कार डालें कि वह महाभागवत हो । वेद-पुराण आदि शास्त्र ईश्वर के स्वरूप होते हैं, इसलिये वह उनका भी भक्त हो ।
देवर्षि नारद इस अवसर की प्रतीक्षा में थे कि कयाधू को कहाँ पायें। इसी बीच उन्होंने अपनी ऋतम्भरा प्रज्ञा से देख लिया कि सारे देवता खूब तैयारी के साथ हिरण्यकशिपु के नगर में घुस गये हैं और सभी दैत्य तथा दैत्यों के सेनापति भी जान बचाकर भाग निकले हैं, घर में कोई नहीं बचा। देवराज इन्द्र ने कयाधू को भी पकड़ लिया। कयाधू मारे डर के बहुत जोर से चिल्लाने लगी। तब नारदजी ने अच्छा अवसर देखा और वहाँ पहुँच गये। उन्होंने देवराज से कहा– 'यह पतिव्रता है, साध्वी परनारी का तिरस्कार पाप है। कयाधु को छोड़ दें।
देवता अन्तर्यामी होते हैं। देवराज इन्द्र ने देखा कि कयाधू के गर्भ में हिरण्यकशिपु का बीज है, यह भी हिरण्यकशिपु ही होगा। हिरण्यकशिपु ने तीनों लोकों मे हाहाकार मचा रखा है, इसका बच्चा भी वही करेगा।
इन्द्र ने नारदजी से कहा– कयाधू से हमारा कोई बैर नहीं है। यह प्रसव पर्यन्त हमारे पास रहे। इसे हम तब छोडेंगे, इसके बच्चे को मार डालेंगे। इस पर देवर्षि नारदजी बोले–इसके गर्भ से महाभागवत उत्पन्न होने वाला है, यह तुम्हारे मारे न मरेगा। तुम इसे छोड दो। इसका गर्भस्थ शिशु भगवान का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है।
नारदजी की आज्ञा को इन्द्र ने सिर झुकाकर स्वीकार किया और कयाधु की परिक्रमा की; क्योंकि उसके गर्भ में महाभागवत था।
देवर्षि नारदजी के इस क्रिया-कलाप से कयाधू उनकी ऋणी हो गयी और उनके पैरों पर गिर पडी। देवर्षि नारदजी तो यह चाहते ही थे। उन्होंने कहा– पुत्री ! 'तुम चिन्ता न करो, हमारे आश्रम में सुख से तब तक रहो, जब तक तुम्हारे पति तपस्या से वापस न आ जाये। मेरे आश्रम में तुम्हें कोई भी देवता परेशान नहीं करेंगे।'
इसके बाद देवर्षि नारद ने सबसे पहले अपने जीवन की घटना कयाधू को सुनायी कि भगवान् कितने कृपालु हैं, उन भगवान् को मैंने देखा है। इसके बाद अपने अन्य भाइयों की घटनाएँ सुनायीं कि उदार और कैसे उन्होंने भगवान को देखा और फिर उनका कितना अच्छा अभ्युदय हुआ।
कयाधु भी अन्य लोगों की तरह अपने पति को ही ईश्वर समझती थी, किंतु वह भी ईश्वर को मानने लग गयी और नारदजी ने यह तर्क दिया था कि ईश्वर वह होता है जो सृष्टि-स्थिति और संहार करता है। हरिण्यकशिपु ने सृष्टि नहीं की है, वह तो सृष्टि से उत्पन्न हुआ है। नारदजी की शिक्षा से गर्भस्थ शिशु महाभागवत, बनकर उत्पन्न हुवा, जिनका नाम 'प्रह्लाद' था। बचपन से ही वे ईश्वर को छोडकर और किसी की चर्चा करते ही नहीं थे।
हिरण्यकशिपु तपस्या से जब वापस लौटा तो नारदजी ने कयाधु को वापस भेज दिया । पुत्र को देखकर हिरण्यकशिपु बड़ा खुश था। उसने सोचा- इसे कहाँ पढाया जाय, फिर उसने शुक्राचार्य के पुत्र शण्डामर्क को नियुक्त किया। हिरण्यकशिपु ने शण्डामर्क के गुरुकुल में प्रह्लाद को भेज दिया । प्रह्लाद प्रतिक्षण - ईश्वर का चिन्तन करते थे, किंतु गुरु के सम्मान के लिये जो अर्थनीति आदि की बात वे बताते थे, याद कर उन्हें सुना देते थे, किंतु जब गुरु कहीं बाहर हट जाये तो प्रह्लादजी असुर बालकों को जो अपने सहपाठी थे उनको परमात्मा की बातें बताते। दैत्य बालकों ने कहा– हमारे जो गुरुदेव हैं वे ही तुम्हारे भी हैं, गुरुजी ने तो ऐसी बातें बतायी नही, फिर तुम यह सब कहाँ से सीख गये, कैसे जान गये ? जैसे हम माता के गर्भ से उत्पन्न होकर पढने सीधे यहाँ आये हैं, वैसे ही तुम भी सीधे यहाँ आये हो, फिर तुमने यह सब कहाँ से सीखा ।
प्रह्लाद ने कहा- मित्रो! हमने यह सब देवर्षि नारदजी के मुख से सुना, उन्हीं का उपदेश हम सुना रहे हैं। असुर बालक बोले- तुम्हें नारद कहाँ मिले और कैसे तुम्हें यह उपदेश मिला ? तब प्रह्लाद ने सारी घटना सुना दी कि किस तरह मेरी माँ को देवराज इन्द्र जबरदस्ती ले जा रहे थे और किस तरह नारदजी ने उन्हें छुडाकर अपने आश्रम में रखा और किस तरह गर्भावस्था में उपदेश दिया। वही उपदेश मैंने सुना । लेकिन मेरी माता का पहला संस्कार इतना दृढ हो चुका था कि नारदजी की बातें उन्हें याद नहीं रहीं; भूल गयी, किंतु मेरे पास कोई संस्कार था नहीं, उनके उपदेश से मुझमें संस्कार प्रतिष्ठित हुआ और वही संस्कार हम तुम सभी को सुना रहे हैं।
इस प्रकार आगे के प्रह्लादजी के चरित्र से सारी दुनिया परिचित है, इसलिये हम यहाँ उसे नहीं लिख रहे है। देवर्षि नारदजी ने एक ही वचन, एक ही उपदेश, कयाधू और गर्भस्थ शिशु को सिखाया था, किंतु उसके प्रभाव दो हुए। गर्भस्थ शिशु को तो उपदेश ने महाभागवत बनाया, किंतु उन्हीं शब्दों ने कयाधू को प्रह्लाद नहीं बनाया; क्योंकि उसका संस्कार पहले से ही अनीश्वरवादी था।
अतः हमें इस कहानी से सीख मिलती है कि जन्मोपरांत संस्कारों से अत्याधिक प्रबलता गर्भावस्था से प्राप्त संस्कारो में होती है।
छत्रपती शिवाजी महाराज एवं जिजाऊ
इसी संदर्भ में छत्रपती शिवाजी महाराज का उदाहरण भी हम ले सकते है। जब शिवाजी की माँ जिजाऊ गर्भवती थी, उस समय चारों ओर मुगलों का अत्याचार छाया हुआ था। धर्म को भ्रष्ट किया जा रहा था। उस समय जिजाऊ बार बार सोचती थी कि कोई तो आए, जो अपने पराक्रम एवं पुरुषार्थ से इस अत्याचार को रोके । धर्म को बचाये। उनकी भावनाएं उस समय शौर्य से भरी हुई थी। उस समय उनकी सारी भावनाओं से युक्त होकर ही जन्मोपरांत शिवाजी महाराज ने अपनी माता से प्राप्त संस्कारों के अनुरूप हिंदवी स्वराज की स्थापना की थी।
इस तरह भारत का इतिहास गर्भस्थ संस्कारो से युक्त महापुरुषोंसे भरा पडा है। क्यों न वर्तमान में हम इतिहास को नये स्वरुप में दोहराये। ऐसी अद्वीतिय आत्माओं को ब्रम्हांड से बुलायें। गर्भस्थ संतान को ऐसे ही दिव्य संस्कार प्रदान करें। जो हमारे सौभाग्य से इस जगत में धर्म एवं शांति की स्थापना कर सके। जो हमारे परिवार, कुल एवं धर्म के साथ साथ विश्व कल्याण में अपनी अहम भुमिका निभाये। ऐसा हो सकता है... सहजता से... और यह एक स्त्री कर सकती है.. अपने नौ माह के संकल्पित जीवन द्वारा!