Garbh Sanskaar - 1 in Hindi Women Focused by Renu books and stories PDF | गर्भ-संस्कार - भाग 1

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गर्भ-संस्कार - भाग 1

“गर्भवती यह जान ले कि उसकी प्रत्येक सकारात्मक कल्पना सकारात्मकता निर्माण कर रही है। प्रत्येक नकारात्मक कल्पना नकारात्मक परिणाम देने में सक्षम है। एक गर्भवती की सकारात्मकता का केवल उसके शरीर एवं मानसिकता पर असर नही होता बल्कि उसका शिशु उससे भी अधिक संवेदनशील है, वह सब कुछ ग्रहण करता है। वह शिशु अभी मौन है, लेकिन नौ महिने की प्रत्येक कल्पना, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कृत्य, आपके व्दारा उत्पन्न प्रेम, दया, करुणा, ईर्ष्या, व्देष, शत्रुत्व... सब कुछ वो अपने जीवन में दोहराने वाला है। जाने अनजाने में सबकुछ हमारे व्दारा ही निर्माण हो रहा है।”

“गर्भवती माता का ध्यान दोहरा हो जाता है, क्योंकि आप जब मुस्कुराती है, तब आपका शिशु भी मुस्कुराता है। आप जब उदास होती है तब शिशु भी उदास होता है। ऐसे ही जब आप ध्यान लगाती है तो शिशु भी ध्यानमग्न हो जाता है। अतः आपसे भी अधिक ध्यान का लाभ आपके गर्भस्थ शिशु को प्राप्त होता है, क्योंकि माँ की तुलना में शिशु अधिक संवेदनशील होता है।”


       गर्भ संस्कार के द्वारा एक ऐसे शिशु को जन्म दिया जा सकता है, जो संपुर्णतः स्वस्थ हो, निर्दोष हो, दीर्घायु हो, उसका मन मस्तिष्क असामान्य हो, प्रबल हो। उसके व्यक्तित्व में ऐसी सुगंध हो कि सारा संसार मोहित हो जाये। सत्य एवं सात्विकता मे उसकी प्रधानता हो। उसकी स्मरण शक्ति, बुध्दीमत्ता, एकाग्रता, सृजनशीलता, विद्वत्ता अद्भुत हो। कला, साहित्य, संगीत, ध्यान धारणा, प्रेम आदि गुणों से युक्त हो। शांत चित्त, दृढ निश्चयी, प्रेमपुर्ण, सकारात्मकताओं से भरा हो। उपरोक्त वर्णन से भी अधिक सद्गुणों वाली संतान गर्भ संस्कार की प्रक्रियाओं द्वारा गर्भ में ही निश्चित की जा सकती है।

भारत का इतिहास गर्भस्थ संस्कारो से युक्त व्यक्तित्वों से भरा पडा है। क्यों न वर्तमान में हम इतिहास को नये स्वरुप में दोहरायें। ऐसी अव्दितिय आत्माओं को ब्रह्मांड से आमंत्रित करें। गर्भस्थ संतान को, ऐसे ही दिव्य संस्कार प्रदान करें। जो हमारे सौभाग्य से इस जगत में धर्म एवं शांति की स्थापना कर सके। जो हमारे परिवार, कुल एवं धर्म के साथ साथ विश्व कल्याण मे अपनी अहम भुमिका निभाये, एैसी स्वस्थ, सुदृढ, समृध्द संतान की प्राप्ती सहजता से हो सकती है... और यह गर्भावस्था में माता पिता के संकल्पित जीवन व्दारा किया जा सकता है !


गर्भवतियों से आत्म निवेदन

गर्भ संस्कार का अर्थ क्या है सर्व प्रथम वह समझ लें। गर्भ संस्कार वह होते हैं जो शिशु के जगत में आगमन के उपरांत उसके साथ जीवन भर रहे। गर्भ संस्कार अर्थात गर्भ में शिशु को माँ द्वारा जीवन जीने की कला का प्रशिक्षण है। जो माँ के अंतर्मन से शिशु के अंतर्मन में स्थापित होता है। और जो गर्भ में स्थापित हो जाता है वही सब कुछ उस शिशु के जीवन में साकार होने लगता है। शिशु का स्वभाव, चित्त, बुध्दीमत्ता, आनंदमयता का प्रमाण, उसका सौभाग्य आदि गर्भ में ही निर्धारित हो जाता है। गर्भ संस्कार सुसंस्कार भी हो सकते है एवं कुसंस्कारों के रूप में भी स्थापित हो सकते है। यह तो उस गर्भस्थ शिशु की माँ पर निर्भर है कि नौ माह का समय वह कैसा निभाती है।

गर्भ संस्कार की प्रक्रिया वैद्यकिय प्रक्रिया नही है। गर्भ संस्कार तो एक मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जिसके व्दारा गर्भस्थ शिशु का भावी जीवन निर्धारित किया जाता है। डॉक्टर की भूमिका उनकी जगह महत्वपूर्ण तो है ही, लेकिन गर्भसंस्कारों से उनका प्रत्यक्ष संबंध कम ही आता है। आयुर्वेद संबंधित गर्भसंस्कार की प्रकिया भले ही वैद्यकिय दृष्टिकोन से प्रशंसनिय होगी, लेकिन उसकी प्रत्यक्ष भुमिका स्वस्थ शिशु व स्वस्थ प्रसुति तक ही सीमित रह जाती है। 

नौ माह में क्या खाये पिये, क्या दवाई ले ? शिशु का विकास कैसा होता है? प्रसूती कैसी होती है ? डॉक्टर के पास कब कब जाना होता है? आयुर्वेद की दवाइया कौन सी होती है? योगासन कौन से करने होते है? फिर शिशु होने बाद उसकी देखभाल कैसे करनी चाहिए ? यह सब महत्वपुर्ण हो सकता है परंतु यह प्रत्यक्ष में गर्भ संस्कार का हिस्सा नही है। देखा जाए तो गर्भाधान के बाद ही गर्भ संस्कार की प्रक्रिया शुरु होती है। अनावश्यक बातों को टाल कर केवल गर्भ संस्कार की मुल संपुर्ण प्रक्रिया आप को इस पुस्तक से प्राप्त हो ही जाएगी। यह तो बात हुई गर्भवतीयों के लिए, साथ ही साथ गर्भ धारण ईच्छुको के लिए सर्वश्रेष्ठ आत्मा को आमंत्रण देने हेतु गर्भाधान के पूर्व कुछ महत्वपुर्ण तथ्य हमें पता होने चाहिए। गर्भाधान पुर्व सही तैयारी हो जाए तो सर्वश्रेष्ठ आत्मा का गर्भ में आगमन तो होता ही है, साथ साथ गर्भाधान में कुछ मानसिक व शारिरीक समस्याऐं होगी तो वह भी दूर हो जाती है । 

गर्भ में शिशु केवल स्त्री-पुरुष के शारीरिक मिलन का या सेक्स का नतिजा नही है। शरीर के संग संग दो आत्माओं का मिलन होता है, जो नई आत्मा को आमंत्रण देता है। फिर शरीर यंत्रणा अपने शरीर जैसा घर उस आत्मा के लिए बनाना प्रारंभ कर देती है। गर्भ में केवल शरीर नही बनता, उस बनते शरीर में वह आंमत्रित आत्मा निवास कर रही होती है, जो अपने गत जन्मो के गुणो के साथ नौ माह तक माता पिता के गुणो को भी धारण करती है। गर्भ में शिशु का शरीर तो बनने लगता है, परंतु यह शरीर के निर्माण का मुल कारण होता है गर्भ में प्रवेशित हो चुकी आत्मा । यह आत्मा भी अपने धर्म का अपने माता पिता का, अपने . परिवार का स्वयं चुनाव करती है। और यह चुनाव वह अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार व सिद्धांतो के अनुसार करती है।

गर्भस्थ शिशु की हर सांस माँ की साँस से होती है। शिशु कि हर आस माँ की आस से होती है। वह माँ की आँखो से दुनिया को देखता है। माँ के कानों से सुनता है। माँ के हर भाव से उसका भाव होता है। माँ नौ माह में कितना समय अपने शिशु की ओर ध्यान देती होगी ? परंतु शिशु गर्भ में से प्रत्येक क्षण माँ से जुड़ा होता है। माँ की कोख में वह पहले दिन से ही पुरा सचेत होता है। उस की सचेतना ही गर्भसंस्कार की नींव बन जाती है।

जब स्त्री को पहली बार मालूम हो जाए कि वह गर्भवती हैं, तब तक उसके गर्भ में शिशु के शरीर का निर्माण गती ले चुका होता है। माँ बनने के बाद स्त्री का व्यक्तित्व निखर जाता है। स्त्री का पुरा सौंदर्य उसके माँ बनने पर प्रकट होता है। माँ बनने की इस तृप्ति से माँ में एक दीप्ति नजर आती है जो अद्भुत होती है। माँ बनना एक घडी है आध्यात्म की, एक स्थिरता है , मातृत्व की, जो स्त्री के लिए विश्व में सर्वोत्तम सुख व आनंद का प्रतिक है।

गर्भ संस्कार के द्वारा एक ऐसे शिशु को जन्म दिया जा सकता है, जो संपुर्णतः स्वस्थ हो, निर्दोष हो, दिर्घायु हो, उसका मन मस्तिष्क असामान्य हो, प्रबल हो। उसके व्यक्तित्व में ऐसी सुगंध हो कि सारा संसार मोहित हो जाये। सत्य एवं सात्विकता में उसकी प्रधानता हो। उसकी स्मरण शक्ति, बुध्दीमत्ता, एकाग्रता, सृजनशीलता, विद्वत्ता अद्भुत हो। कला, साहित्य, संगीत, ध्यान धारणा, प्रेम आदि गुणो से युक्त हो। शांत चित्त, दृढ निश्चयी, प्रेमपुर्ण, सकारात्मकताओं से भरा हो। उपरोक्त वर्णन से भी अधिक सद्गुणो वाली संतान गर्भ संस्कार कि प्रक्रियाओं व्दारा गर्भ में ही निश्चित की जा सकती है।

जीव की गर्भ में स्थापना एक आध्यात्मिक एवं प्रसव एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। प्रसव घडी से स्त्री के जीवन में बहुत कुछ बदलाव आता है। एक लडकी प्रथम विवाहिता बनती है, कुछ ही समय बाद वह माँ बन जाती है। लेकिन इस बदलाव में उसके स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगते है । जीवन शैली में परिवर्तन सा झलकता है। परंतु प्रत्येक परिस्थिती में अपने आपको अनुकुल बना लेने का वरदान प्रकृतीने स्त्री को दे रखा है। केवल वह प्रकृती के इस परिवर्तन के साथ संघर्ष न करते हुए समर्पण का भाव रखें। जिससे दसों दिशाओं से उसके जीवन में आनंद बरसने लगता है।

जब बच्चा गर्भ में आता है तब से माँ की जिम्मेदारी है कि उसको सुसंस्कार दें। उसके लिए माँ को थोडा-सा विचार करना चाहिए कि वह स्वयं कैसे रहे ? माँ तथा जन्म लेने वाले शिशु दोनों के स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कुछ नियमों का पालन करना जरुरी होता है। गर्भावस्था नारी जीवन की एक ऐसी अवस्था है, जिसमें उसे विशेष परिस्थितियों और कभी कभार असुविधाओं का सामना करना पड़ सकता हैं। माँ और शिशु का स्वास्थ्य एक ओर जहाँ माता पिता के शारीरिक प्रकृति और मनोवैज्ञानिक स्थितियों पर निर्भर करता है, वहीं रहन-सहन, खान-पान व अन्य आदतों का भी सीधा प्रभाव पडता है। इस अवधि में समय पलक झपकते बीतता प्रतीत होता है। नौ महिने जैसे उस शिशु के लिए पाठशाला सी होती है। जिस पाठशाला में अपना घर मानकर शिशु अपने माँ के साथ प्रतिक्षण कुछ न कुछ सीखता रहता है। इस पाठशाला में उसे इतना सक्षम बनना होता है कि वह गर्भ से बाहर आकर इस दुनिया के रंगमंच पर अपना किरदार निभा सके। भावी माता पिता की भुमिका इसमें अत्यधिक महत्वपुर्ण होती है।

गर्भ संस्कार व गर्भाधान संस्कार से ही जगत की सर्वोत्तम संतान एवं सुख की प्राप्ति होती है। जैसे हमारी पीढ़ी की सुदृढता हमारे माता पिता की सुदृढता पर निर्भर थी, वैसे ही आने वाली पीढी हम पर निर्भर होगी। गर्भधारण से पूर्व ही इसकी तैयारी करनी होगी और गलती से किसी ने पूर्व तैयारी की न हो तो कम से कम नौ माह तक स्त्री के साथ साथ शिशु का तन-मन स्वस्थ रखना होगा। केवल शारीरिक स्वास्थ्य से शिशु सुदृढ तो होगा पर मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाये तो शिशु संयमशील एवं संस्कृती को हित में रखने वाला, सामाजिक मर्यादा को समझने वाला, धर्मशील, वैभवशाली एवं सर्वगुण संपन्न होगा। अगर पूर्व नियोजन व सकारात्मक गर्भ संस्कार कर माता पिता संतान प्राप्ति करें तो शिशु में शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्तर पर निर्दोष एवं परिपुर्ण संतान प्राप्ति हो जाती है।

माँ के साथ साथ पिता के संवेदन (वाईब्रेशन्स्) भी बच्चे पर प्रभाव डालते है, क्योंकि माँ के बाद बच्चे के सबसे निकट पिता ही होता है। घर के बाकी सदस्यों की संवेदनायें भी कुछ न कुछ गर्भस्थ शिशु ग्रहण करता है। घर का माहौल भी शिशु पर गंभीरता से परिणाम करता है पर सभी बातों का माध्यम एक ही है और वो है 'माँ'। वो नौ माह तक अपने आपको किस तरह ढालती है, यह शिशु के दृष्टिकोन से महत्वपुर्ण रहता है।

विशेषतः इस पुस्तक से प्राप्त ज्ञान द्वारा आपको स्वस्थ, सुदृढ, सौभाग्यशाली, धनवान, विद्वान, निर्दोष, दिर्घायु, निर्भय, आनंदमय एवं दिव्य संतान कि प्राप्ती सुनिश्चित है। अतः ऐसी संतान प्राप्ती के लिए आपको शुभकामनाओं के साथ हम आपका अभिनंदन करते है।

सर्वमंगलम् भवतु । शुभं भवतु।। जय श्री कृष्ण !