नागरिक प्रशासन
सत्ता प्राप्त करने के बाद कुछ वर्षों तक रणजीत सिंह को लड़ाइयों और कूटनीति में इतना व्यस्त रहना पड़ा कि नागरिक प्रशासन की व्यवस्था करने के लिए वक्त ही नहीं मिला, किंतु वित्त विभाग की ओर जरूर उन्हें शुरू से ही ध्यान देना पड़ गया, क्योंकि अपने विजय अभियान के लिए उन्हें प्रचुर साधनों की आवश्यकता थी। धीरे-धीरे इस वित्त-विभाग से ही कई 'सरिश्तों' या विभागों के रूप में अनेक शाखाएं-प्रशाखाएं फूटने लगीं, जिनमें से प्रत्येक विभाग के कागजात को अधिकृत रूप देने के लिए अलग-अलग मोहरें थीं। इनमें से कुछ विभागों या प्रभागों का नाम उनके अधिकारी के ही नाम पर पड़ गया-जैसे, दफ्तर-ए-देवीदास, सरिश्ता-ए-भोवानी दास। इस तरह के विभाग एक दर्जन के करीब थे, और वे प्रशासन के विभिन्न भागों का काम देखते थे। पहले तो मुसलमानों के हिजरी सन् का इस्तेमाल किया जाता था, पर 1807 ई. के बाद विक्रम संवत् चलाया जाने लगा।
किसी रकम की अदायगी के हुक्म की तामील में उस वक्त कितना चक्करदार तरीका अख्तियार किया जाता था, इसका ब्यौरा बड़ा दिलचस्प है। जो मुंशी लोग हमेशा ही महाराजा के साथ रहते थे वे महाराजा से प्रत्यक्ष या किसी संवाददाता के जरिये अप्रत्यक्ष रूप में मिले हुए आदेश को फौरन ही लिख लेते थे। रणजीत सिंह अपना हुक्म पंजाबी भाषा में देते थे और यह संकेत दे देते थे कि अदायगी की रकम पूरी की पूरी देनी है या किसी 'कसर' अथवा कटौती के बाद। अदायगी का हुक्मनामा फारसी भाषा में तैयार किया जाता था और उसमें वह नाम तथा स्थान दिया रहता था जहाँ से वह जारी होता था। उसमें रकम की अदायगी के कुल ब्यौरे भी दिए रहते थे—वे व्यक्ति जिन्हें खास-खास रकमें दी जाने को थीं, किनके मार्फत रकम भेजी जाने वाली थी, और उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों के नाम जिन्होंने सबसे पहले महाराजा के हुक्म को उन मुंशियों तक पहुँचाया जिन्होंने कि 'परवाने' पर अपने दफ्तर की मोहर लगाई।
परवाना तैयार हो जाने पर उसे महाराजा की स्वीकृति के लिए उनके पास भेजा जाता था। अक्षरज्ञान न होने पर भी रणजीत सिंह साधारणतः फारसी में लिखे गए कागजात को पढ़कर सुनाए जाने पर उनका मतलब समझ लेते थे। उनकी स्वीकृति मिल जाने पर उस परवाने के ऊपर दो नई मोहरें लगाई जाती थीं—एक फारसी में और दूसरी पंजाबी में। अब यह परवाना विभिन्न दफ्तरों के अपने दौरे पर निकल पड़ता था, और हर दफ्तर में होने वाली जाँच-पड़ताल के बाद उस पर एक-एक नई मोहर और लगती जाती थी। 'नकल दफ्तर' में उसके प्रत्येक शब्द की हू-ब-हू नकल की जाती थी और कागज की पीठ पर यह बात भी दर्ज कर दी जाती थी। परवाने का यह दौरा 'ताशाखाना' पहुँच कर पूरा होता था, जहाँ उसे नत्थी कर दिया जाता था और वह रकम अदा कर दी जाती थी। पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, इस श्रृंखला में से एक के बाद एक कई 'सरिश्ते’ या ‘दफ्तर' छूटते चले गए और रणजीत सिंह के राज्य-काल के अंत तक तो उस परवाने को अधिकृत रूप देने वाली सिर्फ एक मोहर रह गई।
वित्तीय प्रशासन
एक संपूर्ण शासन महाराजा में ही केंद्रीभूत था। उनकी सहायता एक प्रधानमंत्री, परराष्ट्र मंत्री, एक वित्त मंत्री और कई अन्य अधिकारी करते थे जो अन्य अनेक विभागों का प्रशासन करने के लिए नियुक्त थे। प्रथम लेखपाल अमृतसर के एक महाजन रामानंद थे, जिन्हें अपने परिश्रम के बदले में अपने नगर की चुंगी से होने वाली आय और पिंड दादनखाँ की नमक की खानों का ठेका मिला हुआ था। राज्य के खजाने की समुचित व्यवस्था 1808 ई. में भोवानी दास के आ जाने पर ही हो सकी, तब यह विभाग कई दफ्तरों में विभाजित कर दिया गया। राजस्व के साधन थे भूमि से होने वाली आय, 'नजराने', 'जब्तियाँ’, ‘आबकारी’, 'रजिस्ट्री' (पंजीकरण), 'सीमा-कर' और 'परिवहन-कर'। एक विभाग का काम था कर्मचारियों द्वारा भेजे जाने वाले आय-व्यय के चिट्ठों से निपटना और एक दूसरा विभाग राजघराने का हिसाब-किताब रखता था।
नागरिक प्रशासन
खर्च का हिसाब रखने की पद्धति में शायद ही कोई त्रुटि रही हो, पर आय का हिसाब रखने का तरीका विश्वास योग्य नहीं था। समुचित लेखा-परीक्षण के अभाव में भी गबन की काफी गुंजाइश थी। रणजीत सिंह को इस बात का पता था, और इसीलिए कभी-कभी वह इस त्रुटि की पूर्ति बड़े ही भोंड़े और सीधे ढंग से कर डालते थे, तब वह अपने भ्रष्ट अथवा उदंड और धृष्ट कर्मचारियों पर शुल्क ठोक देते थे, जिसे अदा न करने पर उनकी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी।
कर
सिखों का भूमि-कर काफी ज्यादा था; कुल उपज के पाँच हिस्सों में से दो हिस्से से लेकर कुल उपज का एक-तिहाई तक। आबकारी और सीमा-कर से भी काफी राजस्व की प्राप्ति हो जाती थी, और सीमा-कर बार-बार, कई स्थानों पर, लगता था। स्टाइनबाख के अनुसार, रणजीत सिंह के कर की 'पहुँच हर कहीं थी; हर मुकाम, हर रास्ता, हर कस्बा और गाँव, हर चीज-भले ही वह कहीं भी बेची गई हो, कहीं से आयात की गई हो, कहीं भी निर्यात हो रही हो और चाहे वह देशी हो या विदेशी—उनके कर की पकड़ में थी।' यह कथन कुछ अत्युक्तिपूर्ण जरूर जान पड़ता है, पर इसमें तो संदेह नहीं ही है कि महाराजा की सरकार जरूरत के वक्त पर प्रजा की मुक्तहस्त हो सहायता भी करती थी। दुर्भिक्षों के समय बोने और खाने, दोनों के ही लिए अन्न बाँटा जाता था। जिन इलाकों से होकर उनकी फौज गुजरती थी वहाँ का राजस्व अथवा लगान माफ कर दिया जाता था। महाराजा इस बात पर कड़ी नजर रखते थे कि उनकी कच्ची घुड़सवार फौज फसल को न लूटने पाए। फिर, फौज में लोगों को रोजगार मिलने की काफी अच्छी गुंजाइश बनी रहती थी और सैनिक अपनी बचत घर भेजते रहते थे।
स्थानीय शासन
रणजीत सिंह का पंजाब चार सूबों में बँटा हुआ था—लाहौर, मुलतान, कश्मीर और पेशावर। अनेक पहाड़ी राजा और जागीरदार उन्हें वार्षिक कर देते थे। सूबा परगनों में विभाजित था, परगना तालुकों में, और तालुका 50 से लेकर 100 तक ‘मौजा' या गाँवों में। इस संबंध में उन्होंने मुगलों की ही पद्धति का अनुसरण किया था। सूबेदार का प्रशासन नाजिम या सूबेदार के हाथ में था, जिसे मदद करने के लिए कारदार होते थे। साधारणतः एक तालुके के पीछे एक कारदार होता था, पर इनमें से कुछ लोगों की दरबार तक खासी पहुँच थी और इसलिए अपने इलाके में भी उनका उसी हिसाब से महत्व बढ़ जाता था। कर वसूलने वालों के वेतन एक-समान नहीं थे। पर वे जानते थे कि 'अपने पद के नाते ऊपरी आमदनी पर उनका हक है।'
प्रजा के साथ करदारों का सीधा संबंध रहने के कारण उनका यश-अपयश प्रजा के साथ उनके अच्छे या बुरे सलूक पर निर्भर करता था। वे अपने इलाके में वित्त और न्याय दोनों ही विभागों के अधिकारी होते थे राजस्व-संग्रहकर्ता (कलक्टर), न्यायपति और दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट), आबकारी और सीमा-कर अधिकारी, और सरकार की ओर से साधारण निरीक्षक। बार्नेज के अनुसार, कारदार की नीति साधारणतः यही रहती थी कि, 'भूमि को जोतने वाले के पल्ले उतना ही पड़ने दे जिससे उसकी गुजर भर हो सके।' सरकारी अधिकारी, ‘यह तो नहीं चाहता था कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी की जान ही चली जाए, पर उसके परों को वह बुरी तरह नोच-खसोट डालता था।' पर इस अंग्रेज की इस राय के विपरीत कुछ लेखकों ने कारदारों और नाजिमों के सलूक की प्रशंसा की है और बताया है कि, 'उनके तरीके किसानों के लिए बड़े ही लाभप्रद थे ।'
न्याय-पद्धति
रणजीत सिंह के काल में लिखित कानून नहीं थे और न्याय का आधार सामाजिक प्रथा ही था। 'दीवानी' और 'फौजदारी' मुकदमों का कोई अलग विभाजन नहीं था; दोनों की ही विधि सरल और प्रत्यक्ष थी। गाँवों के झगड़ों का फैसला पंचायतें करती थीं, पर कारदार उन निर्णयों को बदल सकते थे। भूमि, उत्तराधिकार और राजस्व के झगड़े सीधे इन अधिकारियों के पास ही आते थे। फिर भी कुछ कर्मचारी, जिन्हें 'अदालती' कहा जाता था, केवल न्याय-कार्य के लिए ही नियुक्त थे । कुछ लेखकों ने एक 'अदालत-ए-आला' (उच्च न्यायालय) के होने की भी बात कही है, जहाँ अपील की जा सकती थी। मंत्रियों को अपने-अपने विभागों से संबद्ध मामलों पर फैसला देने का अधिकार था। इन अदालतों के फैसलों के खिलाफ होने वाली अपीलों को सुनने का अंतिम अधिकार स्वयं महाराजा को था। वह दूर-दूर तक का दौरा करते रहते थे और न्याय संबंधी कोई निर्णय जब भी विचारार्थ उनके सामने लाया जाता था, तब वह उस पर फिर से विचार करते थे।
नागरिक प्रशासन
महाराजा की सरकार इन मुकदमों में विजयी पक्ष से शुल्क वसूल करती थी; यही नहीं, उसे ‘शुक्राना' भी अदा करना पड़ता था। किसी दीवानी झगड़े में प्रारंभिक जाँच-पड़ताल पर ही अगर कोई मुकदमा नहीं बनता था, तो परिवादी (फरियाद करने वाले) या प्रतिवादी (सफाई देने वाले) पर अदालत का वक्त खराब करने के लिए जुर्माना किया जाता था। कैद की सजा नहीं दी जाती थी, प्रायः सभी मामलों में जुर्माने ही होते थे। इस प्रकार, न्याय-व्यवस्था सरकार के लिए आमदनी का एक बहुत बड़ा जरिया थी । यह न्याय-पद्धति भोंड़ी और सीधी-सादी जरूर थी, पर उस जमाने के पंजाब के लिए ठीक ही थी। सत्ता के दुरुपयोग के मार्ग में एक के बाद एक कई रुकावटें थीं; इनमें से दो थीं— महाराजा के आकस्मिक दौरे, और अत्याचारियों के विरुद्ध अपनाए जाने वाले उनके कुछ खास तरीके।