Maharaja Ranjit SIngh - 5 in Hindi Biography by Sudhir Sisaudiya books and stories PDF | महाराजा रणजीत सिंह - भाग 5

Featured Books
Categories
Share

महाराजा रणजीत सिंह - भाग 5

रणजीत सिंह का दरबार

अकबर और छत्रपति शिवाजी महाराज की ही भाँति महाराजा रणजीत सिंह ने भी स्कूली शिक्षा करीब-करीब नहीं के बराबर पाई थी, फिर भी उनके अंदर बुद्धि का आलोक था और सहिष्णुता भी। उनके धर्मावलंबियों में से अधिकांश के अंदर उन दिनों जो भावना काम करती थी उसके कारण ब्राह्मणों, मुसलमानों और विदेशियों के प्रति उनके मन में द्वेष-भाव होना चाहिए था, पर उन्होंने ऐसे कितने ही लोगों को ऊँचे ओहदों पर रखा। वस्तुतः उनके दरबार में कई धर्मों और राष्ट्रों के लोग थे। हो सकता है कि धर्म-निरपेक्षता की यह नीति धार्मिक अनास्था के फलस्वरूप और गंभीर चिंतन के बाद न अपनाई गई हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनके प्रशासन पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ा। हिंदुओं और मुसलमानों को भी अपने मंत्रिमंडल में शामिल करने का जो आदर्श उन्होंने कायम किया, उस पर बाद में कई सिख राज्य चलते रहे। नीचे उनके राज्य के कुछ ऐसे ही प्रमुख लोगों का उल्लेख किया जा रहा है, जिन्हें उन्होंने ऊँचे ओहदे दिए थे और जिनका वह सम्मान भी करते थे और विश्वास भी।

फकीर अजीजुद्दीन
रणजीत सिंह के दरबार के सबसे अधिक विशिष्ट व्यक्ति थे उनके परराष्ट्र मंत्री फकीर अजीजुद्दीन। सन् 1799 ई. में जब रणजीत सिंह ने लाहौर पर कब्जा किया था, तब उनकी आँखों की तकलीफ एक पंजाबी हकीम ने दूर की थी। उस हकीम ने अपने एक शागिर्द (कुछ लोग कहते हैं कि अपने बेटे) अजीजुद्दीन को महाराजा की अर्दली में रखा दिया, क्योंकि उस नौजवान के शिष्ट आचरण और बातचीत के उसके परिष्कृत तरीके से महाराजा बहुत ही प्रभावित हुए थे। कुछ ही वक्त बाद वह नौजवान शाही हकीम के पद पर नियुक्त हो गया और महाराजा ने जागीर में उसे कई गाँव दे दिए। वक्त बीतता गया और वही अजीजुद्दीन धीरे-धीरे रणजीत सिंह के विश्वस्त सलाहकार बन गए, और फिर उनके परराष्ट्र मंत्री। सच पूछा जाए तो अजीजुद्दीन की राय पर महाराजा इतना ज्यादा भरोसा करने लगे थे कि कोई भी बड़ा काम हाथ में लेने से पहले, और उत्तराधिकार-जैसे अधिकांश महत्वपूर्ण राज्य कार्यों में, वह उनकी सलाह जरूर लेते थे। खासतौर से अंग्रेजों की ओर वह क्या रुख अपनाएँ-इसका निर्णय तो वह अपने इन मंत्री की ही राय से करते थे। जब महाराजा किसी लड़ाई पर बाहर जाते थे, तब 'फकीर' को ही लाहौर में प्रशासन का दायित्व सौंप जाते थे। कूटनीतिक वार्ताओं में अजीजुद्दीन बड़े ही निपुण थे और विशेष महत्वपूर्ण कूटनीतिक कार्यों पर रणजीत सिंह उन्हीं को अपना राजदूत बनाकर भेजते थे और अजीजुद्दीन ने भी अपनी हर जिम्मेदारी को पूरी योग्यता के साथ निभाया। वह खुद सैनिक नहीं थे, पर कभी-कभी उन्हें सैनिक कार्य भी दिए गए।

महाराजा का इतना अधिक विश्वास प्राप्त करने वाले फकीर अजीजुद्दीन धर्म की दृष्टि से सूफी थे और इसीलिए उनके अंदर अत्यधिक सहिष्णुता थी और धार्मिक कट्टरपन का अभाव। एक बार जब रणजीत सिंह ने उनसे पूछा कि वह हिंदू धर्म को ज्यादा पसंद करते हैं या इस्लाम को, तब उन्होंने होशियारी के साथ जवाब दिया था : “मेरी हालत एक ऐसे आदमी की है जो एक बहुत बड़ी नदी के बीच बहता जा रहा है। जमीन की ओर मैं अपनी नजर ले जाता हूँ, पर दोनों ओर के किनारों के बीच मुझे कोई फर्क नहीं दिखाई देता।” रणजीत सिंह के दरबार में दो ही दरबारी ऐसे थे—एक वह और दूसरे भैया राम सिंह। जो महाराजा के इशारे की भाषा समझ सकते थे। लिखने और बोलने, दोनों की ही दृष्टि से अजीजुद्दीन का भाषा पर बड़ा अच्छा अधिकार था। जो सरकारी कागजात वह तैयार करते थे उनकी भाषा आदर्श होती थी। बड़ी ही सुरुचिपूर्ण और परिष्कृत। वह स्वयं तो बड़े भारी विद्वान थे ही, विद्यादान के कामों में भी बराबर सहायता करते रहते थे; अपने ही खर्च से वह फारसी और अरबी पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए एक उच्च विद्यालय चलाते थे। वह कवि भी थे और सरल, किंतु सुंदर फारसी में उन्होंने अपने सूफी मत को अभिव्यक्ति दी थी। अजीजुद्दीन अपने को 'फकीर' कहते थे और वैसी ही उनकी वेशभूषा थी शायद अपने दुश्मनों और प्रतिद्वंद्वियों की खुराफातों से भी इस तरह वह अपनी रक्षा कर लेते थे। उनके वंशजों के अनुसार, यह एक खिताब था जो महाराजा ने उन्हें वंश-परंपरा तक चलने के लिए उन्हें दिया था। इस खिताब के साथ-साथ उन्हें दो गेरुआ शॉल भी भेंट किए गए थे।

लेगेल ग्रिफिन ने अजीजुद्दीन को काबिल भी बताया है और ईमानदार भी। यों सूफी साहब विश्वासपात्र भी पूरे थे। वह रणजीत सिंह को भली-भाँति समझते थे और उनके इशारे और शब्दों का सही मतलब लगा सकते थे। खासतौर पर, जब से कि महाराजा की जीभ का एक हिस्सा लकवे से मारा गया। रणजीत सिंह की बीमारी के दौरान वह बराबर ही बिना नागा उनकी सेवा में हाजिर रहे। मैकग्रेगर उनके बारे में जो लिख गए हैं, वह यों है : “रणजीत सिंह अगर उनके अपने पिता भी होते, तो इससे अधिक सेवा और यत्न उन्हें उनसे नहीं प्राप्त हो सकता था।” प्रथम सिख युद्ध में अंग्रेजों की जीत से ठीक पहले ही, दिसंबर 1848 ई. में अजीजुद्दीन की मृत्यु हो गई।

नूरुद्दीन और इमामुद्दीन
फकीर अजीजुद्दीन ने अपने छोटे भाइयों में से भी दो-नूर और इमाम को रणजीत सिंह की नौकरी में लगा दिया था, और ये दोनों भी, समय बीतने पर, महाराजा के महत्वपूर्ण दरबारी बन गए। नुरुद्दीन की तो, अपनी ईमानदारी और धर्मपरायणता के कारण, बड़ी प्रतिष्ठा थी। कुछ समय तक वह प्रमुख हकीम के पद पर रहे; बाद में वह, महाराजा दलीप सिंह के बालिग होने तक प्रशासन के लिए नियुक्त रीजेंसी (शासन परिषद) के एक सदस्य रहे। इसके पहले वह लोक-निर्माण (महलों और बागों), शस्त्रागार और सेना रसद-विभागों के भी अधिकारी रह चुके थे। खजाने की चाभियों के तीन रखवालों में से भी वह एक थे। वह ‘हकीम' भी कहलाते थे और ‘खलीफा' भी। उनके प्रपौत्र वहीदुद्दीन के अनुसार तो महाराजा अपनी न्याय-भावना और विवेक को उन्हीं की कसौटी पर परखते थे। इमामुद्दीन अमृतसर से संलग्न गोविंदगढ़ किले के संचालक थे। इन मुसलमानों ने अगर अपना कोई अलग दल बनाना चाहा होता, तो उन्हें इतनी अधिक शक्ति और अधिकार प्राप्त थे कि वे आसानी से स्वार्थ-साधन कर सकते थे। पर रणजीत सिंह ने उन पर जो भरोसा रखा उसे उन्होंने बराबर निभाया और न तो कभी उसका दुरुपयोग किया और न विश्वासघात। जब तक महाराजा का शासन रहा वे निरंतर उनके प्रति वफादार रहे।

राजा दीनानाथ
राजा दीनानाथ कश्मीरी थे। उनके चाचा गंगाराम रणजीत सिंह के यहाँ मुनीम थे। उन्हीं की मदद के लिए महाराजा ने 1815 ई. में, या उसी के आसपास, उन्हें नियुक्त किया था। गंगाराम की मृत्यु के बाद दीनानाथ राज-मुद्रा के रक्षक बनाए गए, और भोवानीदास की मृत्यु हो जाने पर वित्त विभाग के प्रधान। दीनानाथ की तुलना यूरोप के प्रसिद्ध राजनेता तालेराँ के साथ की गई है, क्योंकि उन्हीं की भाँति इन्हें भी कितने ही परिवर्तनों का सामना करना पड़ा और फिर भी वह आगे बढ़ते गए और उनकी संपत्ति और शक्ति दोनों में ही वृद्धि होती रही। वह बड़े ही विलक्षण और दूरदर्शी थे। लेपेल ग्रिफिन की राय में, ‘दीनानाथ देशभक्त थे, पर उनके लिए देशभक्ति का स्थान आत्म-भक्ति के बाद था।’ किंतु संभव है कि उनकी ऐसी राय इसलिए बन गई हो कि दीनानाथ अंग्रेजों को अच्छी आँख से नहीं देखते थे। जो भी हो, दीनानाथ एक साहसी व्यक्ति थे। उन्हें स्थानीय बातों की जबर्दस्त जानकारी थी और काम करने की उनकी क्षमता बहुत अधिक थी।... दुनियादारी में वह बहुत ही मँजे हुए थे, नम्र थे, और दूसरों का लिहाज करते थे : वह सुशिक्षित थे... और यूरोपवासियों के साथ बातचीत करते वक्त वह असाधारण निर्भीकता और स्पष्टवादिता का परिचय देते थे। सन् 1834 ई. में रणजीत सिंह ने उन्हें वित्तमंत्री का पद दिया। वैसे भी वह महाराजा के परम विश्वासपात्र सलाहकारों में थे। लाहौर पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने के बाद भी वह पंजाब की सेवा करते रहे : दरबार के उलझे हुए हिसाब-किताब को सुलझाने में उन्होंने बड़ी मदद की। रणजीत सिंह ने उन्हें पहले ‘दीवान’ की और बाद में 'राजा' की उपाधि दी थी। राजस्व विभाग को व्यवस्थित करने का श्रेय उन्हीं को था, जिसके फलस्वरूप महाराजा को नियमित रूप से भारी आय होती रही।

जमादार खुशहाल सिंह
रणजीत सिंह के यह ड्यौढ़ीदार मेरठ के एक ब्राह्मण थे। 17 साल की उम्र में लाहौर आने पर पहले तो वह मामूली नौकर का काम करने लगे और फिर पाँच रुपये महीने पर एक मामूली सिपाही का। महाराजा के ड्यौढ़ीदारों के मार्फत वह रणजीत सिंह के पहरेदारों में हो गए। देखने में सुंदर, योद्धाओं-जैसी चाल-ढाल, और चुस्त-चौकस नौजवान। महाराजा की नजर उस युवक पर टिक गई। कहते हैं कि एक रात को जब रणजीत सिंह वेश बदलकर बाहर निकल पड़े थे, तो वापसी पर खुशहालचंद ने उन्हें रोक लिया, और पहरेघर में बिठा रखा। नतीजा यह हुआ कि महाराजा ने उसे अपना खास अर्दली बना लिया। कुछ वक्त बाद वह जमादार हो गया और फिर महल के अंगरक्षक सेना में ड्योढ़ीदार। यह पद बड़ा ही महत्वपूर्ण था, क्योंकि ड्यौढ़ीदार के जरिये ही हर किसी की महाराजा तक पहुँच होती थी। दरअसल खुशहालचंद एक साथ ही कई पदों पर थे। वही विधिनायक थे, वही जुलूसों के नियामक थे, और वही दरबार के प्रबंधक थे। ड्यौढ़ीदार का ओहदा पाकर उनका प्रभाव भी बढ़ा और आमदनी भी। कुछ साल बाद उन्होंने 'पाहुल' ले लिया और उनका नाम कुछ बदल कर खुशहाल सिंह हो गया। इसके बाद तो उनके प्रभाव में और भी वृद्धि हुई और उन्हें फौजी जिम्मेदारियाँ भी दी जाने लगीं, पर 1832 ई. में कश्मीर के सूबेदार बना दिए जाने पर उन्होंने प्रजा को इतना सताया कि महाराजा नाखुश हो गए। बातचीत में भी अब जमादार साहब का मिजाज बहुत चढ़ गया था। स्नायविक दृष्टि से भी स्वास्थ्य भंग हो जाने के कारण वह चिड़चिड़े हो गए थे। जिसकी वजह से दरबार में अप्रिय स्थिति उत्पन्न कर देते थे। नतीजा यह हुआ कि वह अपने पद से बरखास्त कर दिए गए और उनकी जगह ध्यान सिंह डोगरा नियुक्त किए गए। खुशहाल सिंह के एक भाई और एक भतीजे (भैया राम सिंह और तेज सिंह) भी सिख सेना में सेनापतियों के पद तक पहुँचे।

जम्मू-भ्राता
खुशहाल सिंह की जगह ध्यान सिंह को ड्यौढ़ीदार का पद मिलने का स्वाभाविक परिणाम था महाराजा के दरबार में डोंगरा परिवार का उत्थान; नए ड्यौढ़ीदार ने कुछ ही वक्त बाद अपने दोनों भाइयों, गुलाब सिंह और सुचेत सिंह को भी बुला लिया। ध्यान सिंह का आचरण अत्यंत शिष्ट और मधुर था, उनके बड़े भाई गुलाब सिंह भी अत्यंत मृदुभाषी थे, और छोटे भाई सुचेत सिंह शिष्ट भी थे और देखने में सुंदर भी। ये तीनों ही जोरावर सिंह के पोते थे। गुलाब सिंह ही एक घुड़सवार टुकड़ी के नायक हो गए। इन सभी भाइयों की उन्नति तेजी के साथ हुई, क्योंकि ये न केवल मँजे हुए दरबारी थे, बल्कि सम्मिलित कार्यों में एक-दूसरे के सहायक भी। इनमें से प्रत्येक को ही काफी जल्द 'राजा' बना दिया गया। गुलाब सिंह को जम्मू का, ध्यान सिंह को भींबर का और सुचेत सिंह को रामनगर का। 

गुलाब सिंह ज्यादातर जम्मू में ही रहते थे, पर बाकी दोनों लाहौर में रहकर सभी भाइयों के हित-साधन पर दृष्टि रखते थे। इन सब में सबसे जल्दी ध्यान सिंह आगे बढ़े। ड्योढ़ीदार के पद से शीघ्र ही वह एकदम प्रधानमंत्री के ही पद पर पहुँच गए और उन्हें 'राजा-ए-राजगाँ' की उपाधि दी गई। कहा जाता है कि “महाराजा के साथ होने वाले कारबार की सहूलियत के लिए" वह अपने यहाँ भी एक छोटा-मोटा दरबार लगाते थे। उनके सभ्य व्यवहार, आकर्षक व्यक्तित्व, सौजन्य और चाल-ढाल से औसबर्न बहुत प्रभावित हुआ था। उसने उन्हें न सिर्फ महाराजा की नजर में काफी ऊँचा उठा हुआ पाया, बल्कि सिखों पर भी उनकी काफी धाक देखी, जो उनकी बुद्धिमत्ता और होशियारी की बहुत ही कद्र करते थे। ध्यान सिंह बड़े धनाढ्य थे और यह माना जाता था कि अपनी जागीर के प्रबंध में वह 'नरा भी थे और न्याय-परायण भी।' इस अंग्रेज की दृष्टि में यह एक अनहोनी-सी बात थी कि जिस आदमी पर महाराजा का इतना पक्षपात था और जिसकी शक्ति इतनी बढ़ चुकी थी उसके प्रति लोगों में ईर्ष्या का नहीं, बल्कि उसकी प्रतिभा और गुणों के लिए भी आदर का भाव था, किंतु उनके इतने भद्र और विनीत रहते हुए भी औसबर्न से यह नहीं छिपा रह सका कि यूरोपवासियों, और विशेष रूप से अंग्रेजों के प्रति राजा ध्यान सिंह के चित्त में यदि द्वेष-भाव नहीं, तो कठोरता तो थी ही।

ध्यान सिंह के इतने अधिक शक्तिशाली हो जाने का एक कारण यह भी था कि उनके चमत्कारी और सुंदर पुत्र हीरा सिंह को बड़े-बड़े और बुजुर्ग दरबारियों से भी ज्यादा आजादी मिली हुई थी। एक इतिहासकार के शब्दों में, 'यह शक्तिशाली भ्रातृत्रयी-जिसमें ध्यान सिंह प्रशासनिक अधिकारी थे, सुचेत सेना-अधिकारी और गुलाब सिंह में दोनों की ही प्रतिभाओं का कुछ-कुछ समावेश था-रणजीत सिंह के अंतिम दिनों की राजनीति में सबसे अधिक अभेद्य गुट के रूप में थी। अपने चरित्र और योग्यता के बल पर ये तीनों भाई रणजीत सिंह के राज्य के पिछले दो दशकों में अत्यधिक प्रभावशाली हो उठे थे।' ध्यान सिंह की मृत्यु के बाद गुलाब सिंह लाहौर के दरबार में सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति हो गए। बाद में वह अंग्रेजों की नौकरी में चले गए, जिन्होंने उन्हें जम्मू और कश्मीर का शासक नियुक्त किया। सन् 1947 ई. में जिन महाराजा हरि सिंह ने गद्दी छोड़ी, वह गुलाब सिंह के बेटे प्रताप सिंह के गोद-लिए पुत्र थे।

दीवान मोहकम चंद
अपने विजय-अभियानों में रणजीत सिंह को कई बड़े ही योग्य सेनापतियों की मदद प्राप्त थी। इनमें से एक परम श्रेष्ठ व्यक्ति थे मोहकम चंद। वह एक व्यापारी के बेटे थे और उन्होंने अपनी जिंदगी 'भंगी' सरदारों के मुंशी के रूप में शुरू की थी। रणजीत सिंह ने अविलंब उनकी योग्यता परख ली और कई लड़ाइयों का सेनापति-पद उन्हें दिया। मुख्यतः उन्हीं की सैनिक प्रतिभा के कारण रणजीत सिंह को लगातार कितनी ही लड़ाइयों में जीत पर जीत मिलती चली गई और सीस-सतलुज अंचल पर उनके अधिकार, सियालकोट की विजय, पहाड़ी राज्यों के हस्तगत होने तथा मैदानी इलाकों की ओर भी कितनी ही लड़ाइयों में मिलने वाली विजयों, सभी का प्रमुख श्रेय उन्हीं को था। शाह शुजा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने में रणजीत सिंह को जो सफलता मिली उसके लिए भी मुख्यतः वह उन्हीं के ऋणी थे। एक महान सेनापति होने के साथ-साथ, मोहकम चंद एक सफल शासक भी थे। जालंधर दोआब का शासन उन्होंने बड़ी ही कुशलता के साथ चलाया। दरबार की आय बढ़ाने की उन्हें बराबर चिंता रही, लेकिन फिर भी उन्होंने प्रजा को सताया और दबाया नहीं। वेड के शब्दों में : 'राजा के सारे अफसरों में पहले-पहल मोहकम चंद ने ही उनके द्वारा प्राप्त नए-नए और बढ़िया इलाकों पर उनका अधिकार स्थापित करने में सफलता पाई थी।' फिल्लोर में जब 1814 ई. में मोहकम चंद की मृत्यु हुई, तब महाराजा उनके शोक में पागल जैसे हो गए। सारे राज्य में उनकी मृत्यु पर मातम मनाकर उनकी स्मृति के प्रति सम्मान प्रकट किया गया था। उन्होंने लाहौर दरबार को तीन स्वामिभक्त सेवक दिए— पुत्र मोतीराम, और दो पौत्र किरपा राम और राम दयाल, जिनमें से दोनों ही उच्च सेनाधिकारी बने।

निष्पक्ष प्रेक्षकों की राय में, दीवान मोहकम चंद शायद रणजीत सिंह के सेनाध्यक्षों में सबसे अधिक योग्य थे। सन् 1806 से 1814 ई. तक वही सिख सेना के वास्तविक प्रधान सेनाध्यक्ष रहे और महाराजा की लगभग सभी लड़ाइयों से संबद्ध रहे। राम दयाल भी एक कुशल सेनापति थे, पर अपने पितामह की मृत्यु के सिर्फ चार साल बाद ही उनकी भी मृत्यु हो गई।

मिसर दीवान चंद
मोहकम चंद की ही तरह मिसर दीवान चंद भी ब्राह्मण थे। उनके पूर्वजों का युद्ध के मोर्चों से कभी वास्ता नहीं पड़ा था, पर वह स्वयं एक अत्यंत सफल सेनापति सिद्ध हुए। उन्होंने बड़ी ही निष्ठा के साथ रणजीत सिंह की सेवा की (जिन्होंने स्वयं ही उन्हें खोज निकाला था)। सन् 1814 ई. से 1825 ई. तक लगभग एक दशक भर महाराजा अपनी विजयों के लिए मुख्यतः उन्हीं पर निर्भर रहे। 1818 में मुलतान पर और उसके एक साल बाद कश्मीर पर जो विजय अभियान हुए उनका सेनापतित्व दीवान चंद ने ही किया। मुलतान-विजय के लिए रणजीत सिंह ने मिसर जी को ‘जफर जंग बहादुर' (विजयी युद्धवीर) की उपाधि दी और कश्मीर-विजय के लिए 'फतह-जंग' की। जब सदाकौर ने शत्रुता कर ली और उनकी जागीर को जब्त करना पड़ गया, तो यह काम महाराजा ने दीवान चंद के ही सुपुर्द किया। नौशेरा की लड़ाई में भी मिसर जी का बड़ा हाथ रहा। 1825 ई. में हैजे से दीवान चंद की मृत्यु हो जाने पर लाहौर दरबार की बड़ी भारी क्षति हुई। महाराजा के लिए वह न केवल एक योग्य सेनापति थे, बल्कि एक सहचर जैसे थे, जिनका दृष्टिकोण अत्यंत उदार था। उन्हें खोकर महाराजा शोक-सागर में डूब गए और अपने परिचर-वर्ग को उन्होंने बताया कि उनके सेवकों में मिसर दीवान चंद जैसा दूसरा कोई नहीं हुआ।

हरि सिंह नलवा
रणजीत सिंह की सेवा में जितने भी सेनापति रहे उनमें से संभवतः हरि सिंह ही एक हैं जिनकी याद अभी तक लोग करते हैं। वह 'नलवा' इसलिए कहलाने लगे थे कि उन्होंने एक ही वार से एक शेर का मस्तक विदीर्ण कर डाला था। अपनी बहादुरी और कुशलता के लिए अपने समय में उनकी उचित ख्याति रही, और रणजीत सिंह के दिल में उन्होंने अपने लिए काफी बड़ी जगह बना ली। यही कारण है कि अपनी, विशेष रूप से कठिन लड़ाइयों की जिम्मेदारी रणजीत सिंह उन्हीं को सौंपते थे। नवाब मुजफ्फर खाँ के विरुद्ध छेड़े गए मुल्तान के युद्ध की विजय का श्रेय संयुक्त रूप से दीवान चंद और हरि सिंह दोनों को ही था।

सन् 1819 ई. में जिस सेना ने कश्मीर पर चढ़ाई की थी उसके एक भाग के सेनापति नलवा थे; विजय मिलने पर वही वहाँ के सूबेदार बनाए गए। इस कार्य में उनकी सफलता के बारे में दो रायें हैं। लेपेल ग्रिफिन के अनुसार, 'लोगों के बीच नलवा इतने अप्रिय हो गए थे कि महाराजा ने उन्हें वापस बुला लिया,' पर एक दूसरी राय यह है कि कश्मीर में नलवा ने जैसी सूबेदारी की वैसी रणजीत सिंह के राज्य में और किसी ने नहीं की, किंतु हरि सिंह की सबसे ज्यादा याद हजारा और कश्मीर में रणजीत सिंह के प्रतिनिधि के नाते की जाती है। डाकुओं के साथ वह बड़ी सख्ती से पेश आते थे, और काबुल की गद्दी तथा अफगान कबीलों को उन्होंने अपने साहस के बल पर और अपने फौजी दस्तों की गतिशीलता के कारण अपने वश में रखा था। इस सीमांत पर उन्होंने जो काम कर दिखाया उससे रणजीत सिंह इतने खुश थे कि कहा जाता है, उन्होंने किसी के सामने यह उद्गार प्रकट किया कि किसी राज्य पर सफलतापूर्वक शासन करने के लिए हरि सिंह नलवा जैसे लोगों का होना जरूरी है। जमरूद की लड़ाई में उन्हें इतनी चोटें लगीं कि उनकी वजह से 1837 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। जब वह रणभूमि से ले जाए गए, तब उन्होंने अपने साथियों से यही अनुरोध किया कि उनकी मृत्यु की बात तब तक छिपाकर रखी जाए जब तक कि महाराजा की कुमक न आ पहुँचे। उनकी मृत्यु की खबर पाकर रणजीत सिंह की आँखों में आँसू भर आए थे। बताया जाता है कि उन्होंने उस वक्त कहा था- 'नलवा बड़ा नमकहलाल था।'

हीरा सिंह
राजा ध्यान सिंह के पुत्र हीरा सिंह बिल्कुल बच्चे ही थे जब वह रणजीत सिंह की निगाह में चढ़ गए। बचपन से ही वह महाराजा के दरबार में आने लगे थे और अपने जीवन का अधिकांश काल उन्होंने रणजीत सिंह के विशेष कृपापात्र के रूप में बिताया और उनके एक अन्यतम दरबारी बनकर रहे। उनका जन्म 1818 ई. में हुआ था, और शैशव में ही वह असामान्य रूप से सुंदर, प्रतिभाशाली और परम मनोहर थे। बाल्यावस्था आते-आते उन्होंने बहुत कुछ सीख लिया था–घुड़सवारी, तलवारबाजी और बंदूक चलाना। अपनी ढिठाई और हाजिरजवाबी की वजह से शीघ्र ही वह महाराजा के लाड़ले हो गए। इसका कारण शायद यह भी था कि रणजीत सिंह के अपने खुद के लड़कों के अंदर ऐसे कोई गुण नहीं थे। खड़क सिंह न देखने में सुंदर थे और न बुद्धिमान; लोगों के संग-साथ से वह घबराते थे। शेर सिंह जरूर देखने में अच्छे थे, पर वह अधिकांश समय बाहर अपनी नानी सदाकौर के ही यहाँ बिताते थे जो बटाला में रहती थीं।

कुछ समय बाद ही हीरा सिंह, रणजीत सिंह के सदा के संगी हो गए। महाराजा कभी भी उन्हें अपने से अलग नहीं होने देते थे। दरबार में महाराजा के ही निकट उनका सुनिश्चित स्थान था-दोनों राजकुमारों की ही बराबरी पर, लेकिन वे दोनों अकसर ही गैरहाजिर रहते थे। जहाँ ध्यान सिंह महाराजा की कुरसी के पीछे खड़े दिखाई देते थे वहाँ उनका बेटा महाराजा की बगल में बैठा होता था और अपनी मजेदार मीठी बकवास से महाराजा को आनंदित करता रहता था। ज्यों ही वह दस साल का हुआ, उसे न सिर्फ एक जागीर दे दी गई, बल्कि एक बटालियन का नेतृत्व भी। कुमार अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते ही सिंह की सुंदरता देखते ही बनती थी। अब वह न केवल एक अच्छे सैनिक थे, बल्कि एक परिष्कृत दरबारी भी। 1829 ई. में रणजीत सिंह ने उनकी शादी ठीक कर दी।

सन् 1838 ई. में जब औसबर्न ने पहले-पहल हीरा सिंह को देखा, तब वह करीब 20 साल के थे। बड़े-से-बड़े सरदार और जागीरदार के मुकाबले भी उस नौजवान को उन्होंने महाराजा का कहीं अधिक कृपापात्र पाया, यहाँ तक कि राजा ध्यान सिंह से भी ज्यादा। “रणजीत सिंह पर इनका प्रभाव असाधारण है, और यद्यपि यह प्रभाव एक ऐसे ढंग से उपलब्ध हुआ है जिसके लिए किसी भी दूसरे देश में वह बदनाम ही होते, पर यहाँ सब कोई उन्हें सम्मान और आदर की दृष्टि से देखते हैं।” इस अंग्रेज सैनिक कूटनीतिज्ञ की दृष्टि में, हीरा सिंह की सुंदरता स्त्रैण कोटि की थी। उन्होंने कमर से लेकर ऊपर तक मोतियों, हीरों और दूसरे जवाहरात से उन्हें लदा पाया। उन दिनों वह अंग्रेजी सीख रहे थे। इस बात ने, और साथ ही उनकी खुशमिजाजी और भद्र व्यवहार ने औसबर्न पर बड़ी गहरी छाप छोड़ी, जिसके कारण ही वह यह कह सके कि हीरा सिंह, “दरबार के सभी व्यक्तियों में सबसे अधिक सौम्य और लोकप्रिय हैं।”

महाराजा के लिए मानो इस नौजवान के 100 खून माफ थे। हीरा सिंह ही एकमात्र व्यक्ति थे जो बिना कुछ पूछे खुद ही रणजीत सिंह से कोई बात कह सकते थे। महाराजा की बात में दखल देने और उनकी बात काटने से भी वह नहीं चूकते थे। एक बार जबकि कश्मीर से नजराने के रूप में आई हुई सामग्री (शॉल, जवाहरात, शस्त्रास्त्र और नकदी) महल के एक कमरे में फैला कर रखी गई थी, हीरा सिंह चहचहा उठे, “महाराजा इतनी सारी चीजों को लेकर क्या करेंगे? ये सब मुझे दे दीजिए न!” और रणजीत सिंह ने फौरन ही यह बात मान ली थी। 1843 ई. में हीरा सिंह महाराजा नैनिहाल सिंह के प्रधानमंत्री नियुक्त किए गए, पर उनके भाग्य में अधिक दिन जीना नहीं लिखा था। अपने पिता की ही भाँति वह भी खालसा सैनिकों के हाथों 1844 ई. में मारे गए।

अकाली फूला सिंह
फूला सिंह अकाली को रणजीत सिंह के दरबारियों में गिनाने की बात व्यंग्यात्मक-सी लग सकती है, फिर भी इसमें संदेह नहीं है कि जो उद्यत और हठीले निहंग किसी हालत में यह नहीं बरदाश्त कर सकते थे कि महाराजा अंग्रेजों से दोस्ती करें अथवा अपनी आजादी में किसी भी प्रकार की कमी आने दें या धार्मिक कट्टरपन से जौ भर भी हटकर कोई समझौते करें, उन्हीं के नेता का रणजीत सिंह के दरबार में एक महत्वपूर्ण स्थान था और महाराजा पर उनका बहुत बड़ा प्रभाव भी था। फूला सिंह बड़े ही बहादुर थे, पर उतने ही कट्टर और धर्मांध भी। 25 फरवरी, 1809 ई. को जब मुहर्रम और होली के त्यौहार एक ही दिन पड़े, तब वह और उनके अनुयायी अमृतसर में मेटकाफ के मुसलमान अंग. रक्षकों के साथ भिड़ गए। इसी प्रकार, जब यह बात खुली कि रूपड़ में होने वाले समझौते से अंग्रेजों को महाराजा के मुकाबले कहीं ज्यादा रियायतें मिल गई हैं, तब उन्होंने निहंगों को महाराजा की हत्या तक कर डालने के लिए उकसाया था। हो सकता है कि मन-ही-मन रणजीत सिंह अकालियों के तौर-तरीकों से नाखुश रहे हों, पर वह चुपचाप न सिर्फ उन्हें सहते चले गए, बल्कि कभी-कभी, उन्हीं के जैसे धर्मांध और कट्टर मुसलमानों के खिलाफ उन्हें भिड़ाकर, उन्होंने अपने हित में उनका इस्तेमाल भी किया। फूला सिंह के अंदर परस्पर विरोधी बातों का अजीब मिश्रण था। नम्रता और धार्मिकता उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी और गुरुद्वारों में निम्न से निम्न कोटि की सेवा का कार्य करने के लिए वह सदा तत्पर रहते थे। पर सत्ता और अधिकार को चुनौती देने के लिए भी मानो वह हमेशा ही अवसर खोजते रहते थे। लड़ने-झगड़ने में उन्हें कितना मजा आता था और रणजीत सिंह तक पर छींटाकशी करने के मौकों की ताक में वह किस तरह रहते थे, यह बात उनके बारे में मशहूर एक किस्से से स्पष्ट हो जाती है। एक दिन जब हाथी पर महाराजा की सवारी लाहौर की सड़कों पर होकर निकल रही थी, कहते हैं, फूला सिंह ने एक मकान के छज्जे पर से आवाज लगाई: “ओ रे कानो, तुझे चढ़ने के लिए यह 'झोटा' (भैंसा) किसने दिया?” महाराजा भी इससे चिढ़े नहीं, बल्कि उन्होंने भी मजाक में ही जवाब दिया : “हुजूर, यह भेंट आपने ही दी थी।” अंदर-ही-अंदर उनका मतलब शायद यह स्वीकार करने का भी रहा हो कि उनकी शक्ति खालसा लोगों के ही बल पर कायम है, और उनमें से भी खासतौर पर अकालियों के बल पर।

अन्य साधारण दरबारी
बीसों और भी लोग थे-फौजी और गैर फौजी-जिनका महाराजा के दरबार में बड़ा प्रभाव था। उदाहरण के लिए नवाब मुजफ्फर खाँ के दोनों बेटे सरफराज और जुल फिकर-जिनके पिता के युद्ध में मारे जाने के बाद महाराजा उनका बड़ा ख्याल रखते थे; टिवाणा के सरदार खुदा यार खाँ, जिनके वंशज अंग्रेजों के जमाने में भी ऊँचे पदों पर रहे; सिख ग्रंथी राम सिंह और गुरुमुख सिंह, जिनमें से पहले महाराजा के साथ लड़ाइयों तक पर जाते थे; अटारी वाले सरदार, जिनमें से कइयों ने 1848 ई. में अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले 'विरोध' का नेतृत्व किया था। सरदार लेहना सिंह मजीठिया ('ट्रिब्यून' अखबार के संस्थापक सरदार दयाल सिंह के पिता) भी न केवल एक निर्भीक लड़ाके थे, बल्कि एक आविष्कारक, तोपों को ढालने वाले और गणित-ज्योतिष तथा गणित के भारी विद्वान भी थे। औसबर्न के अनुसार, जस्ते के बने किरच (श्रेपनेल) के गोलों को ढालने में भी उन्होंने सफलता पाई थी। उनका एक भारी गुण था ईमानदारी, और एक ऐसे जमाने में जबकि भ्रष्टाचार का बोलबाला था, वह सदा ही इस दुर्गुण से अछूते रहे।