Maharaja Ranjit SIngh - 4 in Hindi Biography by Sudhir Sisaudiya books and stories PDF | महाराजा रणजीत सिंह - भाग 4

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महाराजा रणजीत सिंह - भाग 4

घोड़े और तोपें

किसी ने बहुत अच्छा कहा है कि रणजीत सिंह घोड़ों और तोपों के लिए दीवाने रहते थे। मेटकाफ के अनुसार : “तोपों के लिए महाराजा का दीवानापन और उनके वजन के लिए उनका आकर्षण इतना ज्यादा है कि किसी तोप के मिलने का कोई भी मौका वह हाथ से नहीं जाने दे सकते थे। उन्हें अगर पता चल जाए कि किसी किले में कोई तोप मौजूद है, तो वह तब तक चैन नहीं लेंगे जब तक कि उस तोप को पाने के लिए वह उस किले को ही फतह न कर लें और या फिर किले को उनसे बचाने के लिए कोई उस तोप को खुद ही उनके हवाले न कर दे।” 'जमजमा' तोप को पाने के लिए उन्होंने जो तरीके अख्तियार किए थे, उनकी बात पहले कही जा चुकी है। लाहौर के अपने ढलाई के कारखाने में अपने लिए तोपें ढलवाने के ही खास काम के लिए उन्होंने कुछ अधिकारी नियुक्त कर रखे थे और उस जमाने का जो लिखित ब्यौरा मिलता है उसके अनुसार, रणजीत सिंह के तोपखाने में लगभग 200 तोपों का सामान था। जिन्होंने उन्हें देखा था, उनके अनुसार देशी तौर पर बनाई गई ये तोपें जॉन कंपनी की तोपों से टक्कर लेती थीं।

पर तोपों से भी ज्यादा तो महाराजा घोड़ों पर जान देते थे । यहाँ तक कि लैली नाम की एक घोड़ी पर वह इस कदर फिदा हो गए थे कि उसे पाने के लिए उन्होंने पानी की तरह रुपया खर्च किया और कितनी ही जानें कुरबान कीं। महाराजा के दरबार में जो भी विदेशी आता था उसकी नजर उनके खास घोड़ों की बहुत बड़ी तादाद की ओर जाए बिना रह ही नहीं सकती थी। ऑस्ट्रिया के

चार्ल्स फान हूगेल ने, जो 1835 ई. में पंजाब आए थे, लिखा है कि इन घोड़ों की खूबसूरती नायाब थी और दर्शकों की आँखों पर वह बड़ा गहरा अक्स छोड़ती थी, लेकिन इससे भी बड़ी बात तो यह थी कि, “उनकी लगाम और जीन तथा दूसरे आभूषण...बेहद कीमती हैं।” गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड की बहन कुमारी ईडेन ने भी इस बात की चर्चा की है। उनकी राय में, “रणजीत सिंह को अगर पता चल जाए कि सच्ची नस्ल के मशहूर घोड़े कहीं मौजूद हैं, तो उन्हें पाने के लिए वह किसी सूबे तक पर चढ़ाई कर देंगे।”

नए घोड़ों की खरीद पर हर साल महाराजा काफी बड़ी रकम खर्च करते थे। दरअसल लगभग 1000 घोड़े उनके व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए थे जो या तो अस्तबल में मौजूद रहते थे या पहरे के काम पर। कितने ही तो सच्ची नस्ल के अरबी घोड़े थे। इस प्रसंग में लैली को प्राप्त करने की कहानी जितनी शिक्षाप्रद है, उतनी ही दिलचस्प।

इस घोड़ी की खूबसूरती की बात अफगानिस्तान और पंजाब दोनों ही जगह प्रसिद्ध थी। महाराजा के कानों तक जब यह बात पहुँची, तो उन्होंने उस घोड़ी के मालिक, पेशावर के सूबेदार यार मुहम्मद खाँ के सामने, 1826 ई. में, उसके लिए माँग पेश की। खान के इनकार कर देने पर रणजीत सिंह ने अपने एक सेनापति को उसे ले आने के लिए भेजा। यह सेनापति जब दुश्मन की फौज को हरा कर पेशावर पहुँचा, तो उसे बताया गया कि लैली मर गई। बाद को और भी फौजें इस हुक्म के साथ वहाँ भेजी गईं कि घोड़ी जबर्दस्ती छीन ली जाए, और यार मुहम्मद अगर इस हुक्म को न माने, तो उसे सूबेदारी से बरखास्त कर दिया जाए। खान अब पहाड़ियों की ओर भाग खड़ा हुआ। तब एक दूसरे सेनापति को इसी तरह का हुक्म देकर वहाँ भेजा गया। जब लड़ाई में यार मुहम्मद मारा गया, तब उसके भाई सुलतान मुहम्मद ने भी रणजीत सिंह को विफल करने के लिए उसी तरह के तरीके अपनाए। आखिर सुलतान गिरफ्तार कर लिया गया और उसे चेतावनी दी गई कि जब तक वह लैली को नहीं सौंप देता, तब तक वह बंदी रहेगा। इसके बाद ही वह घोड़ी मिल सकी, और जब वह लाहौर पहुँची, तो महाराजा ने बड़ी धूमधाम से उसका स्वागत किया।

कुछ लोगों को इसमें शक है कि जो लैली महाराजा को मिली वही असल लैली थी। यार मुहम्मद पहले भी रणजीत सिंह के आदमियों को इस संबंध में धोखा देने की कोशिश कर चुका था। 1831 ई. में जब रणजीत सिंह रूपड़ में लॉर्ड बैंटिक से मिले थे, तब लैली कहकर जिस घोड़ी को उन्हें दिखाया गया था वह भूरे रंग की थी, लेकिन बैरन हूगेल जब लाहौर गए और उन्होंने लैली को देखने का विशेष अनुरोध किया, तो उन्हें जो घोड़ी दिखाई गई उसका रंग मटमैला था। रणजीत सिंह ने उन्हें बताया था कि लैली को पाने के लिए उन्हें 60 लाख रुपये खर्च करने पड़े थे और 12 हजार आदमियों को कुरबान करना पड़ा था। हूगेल के अनुसार, “उस घोड़ी पर कुछ काले दाग थे और वह 16 हाथ ऊँची थी, उसका साज बड़ा ही शानदार था और अपने टखनों पर वह सोने के कड़े पहने हुए थी।”

रणजीत सिंह की घुड़सवार सेना में कुल मिलाकर 23 हजार सवार थे। एक इसी बात से यह स्पष्ट है कि महाराजा की फौज में कितने ज्यादा घोड़े रहे होंगे। महाराजा और उनके जागीरदारों वगैरा के अपने निजी घोड़े इनके अलावा थे। संभव है कि काफी संख्या ऐसे घोड़ों की भी रही हो जो छोटे और कमजोर हों और जिनका साज-सामान भी बहुत मामूली हो, पर इससे इस बात में कोई फर्क नहीं पड़ता कि घोड़ों के लिए महाराजा का आकर्षण कभी भी कम नहीं हुआ, और जहाँ तक कि उनके निजी अस्तबल का सवाल है, वह संसार के सर्वश्रेष्ठ अस्तबलों में गिना जाता था।