Maharaja Ranjit SIngh - 1 in Hindi Biography by Sudhir Sisaudiya books and stories PDF | महाराजा रणजीत सिंह - भाग 1

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महाराजा रणजीत सिंह - भाग 1

पूर्वज और प्रारंभिक वर्ष

रणजीत सिंह किसानों के कुल में पैदा हुए। उनके पूर्वज खेती-बाड़ी करते और मवेशी पालते थे। उनके पूर्वजों में सबसे पहले कुछ ख्याति पाने वाले थे गुजरावाला के निकट के एक गाँव सुक्करचकिया के बुध सिंह। यह माना जाता है कि उन्हें सिख धर्म की दीक्षा स्वयं गुरु गोविंद सिंह ने दी थी। वह बड़े ही दुःसाहसी थे और लूटपाट की जिंदगी बसर करते थे। ‘देसां’ नाम की एक घोड़ी थी उनकी, जिस पर वह फिदा थे और अकसर उसकी पीठ पर रावी, चिनाब और झेलम नदियों को पार कर जाते थे। 1718 ई. में बुध सिंह की मृत्यु होने पर उनके दोनों बेटों को कुछ गाँव उत्तराधिकार में मिले। इनमें से एक, नौंध सिंह ने सुक्करचकिया में एक किला बनवाया और इस तरह सुक्करचकिया मिस्ल की नींव डाली। उनकी जान, अब्दाली अफगानों के साथ होने वाली एक लड़ाई में, 1752 में गई।

बुध सिंह के बड़े बेटे चड़त सिंह अपने पूर्वजों के गाँव को छोड़ जल्द ही गुजरानवाला में आ बसे और वहाँ आकर उन्होंने उसकी किलेबंदी कर डाली। कुछ ही वक्त बाद उन्होंने वजीराबाद, सियालकोट और पास के दो अन्य नगरों पर अधिकार कर लिया। अहमद शाह अब्दाली के एक हमले में गुजरावाला की किलेबंदी नष्ट कर दी गई और चड़त सिंह के इलाके को लूट लिया गया, पर सिख सरदार ने अहमद शाह की वापसी पर दूर तक उसका पीछा करके और उसकी लूट का एक बड़ा हिस्सा खुद लूटकर अपना बदला लिया। गुजरांवाला में वह फिर आ बसे और फिर से उसकी किलेबंदी कर ली। इसके बाद उन्होंने जम्मू की ओर ध्यान दिया, जहाँ कि कितने ही अमीर पंजाबी खानदान अफगान हमलावरों से बचने के लिए जा पहुँचे थे, पर अपने पिता की ही भाँति वह भी जम्मू की एक लड़ाई में मारे गए—भंगी मिस्ल के खिलाफ चढ़ाई करके जिसने जम्मू की लूटपाट करने के उनके अधिकार को चुनौती दे दी थी।

इस मिस्ल के सरदार अब चड़हत सिंह के छोटे बेटे महासिंह हुए जो अपने पिता से कम दिलेर और महत्त्वाकांक्षी नहीं थे। उनकी विधवा माँ ने जींद के फुलकियाँ सरदार की बेटी राजकौर से उनकी शादी कराके अपने मिस्ल की स्थिति और मजबूत बना दी। महासिंह ने कई किलेबंदियाँ भी कीं और अपने परिचरों की संख्या में वृद्धि भी। इस प्रकार, अब और भी ज्यादा ताकतवर हो जाने पर, उन्होंने उस इलाके के कई गाँवों पर कब्जा कर लिया और फिर अपने पिता की ही तरह, जन्मू पर चढ़ाई कर दी और वहाँ के डोगरा राजा को भाग खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया। इन कामयाबियों से सुक्करचकियों की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई । इन्हीं में से एक चढ़ाई में सफलता पाने के बाद वह लौट रहे थे कि उन्हें अपने एक पुत्र के जन्म का सुखद समाचार मिला। उन्होंने उसी समय उसका नाम बुध सिंह (ज्ञानी) रख दिया, पर बाद की अपनी विजयों के स्मारक के रूप में उसका नाम बदल कर रणजीत सिंह कर दिया।

अपनी माँ राजकौर की कोख से रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 ई. को, जींद के निकट, बदरूखाँ नाम के एक छोटे से नगर में हुआ। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनका जन्म दो नवंबर को गुजरानवाला में हुआ। पंजाब का आम रिवाज यह रहा है कि अपने पहले बच्चे के प्रसव के लिए स्त्रियाँ अपने माँ-बाप के घर पर ही जाती हैं, इसलिए पूर्वोक्त तारीख और जगह ही ज्यादा सही जान पड़ते हैं। रणजीत सिंह के बचपन के बारे में एक ही खास बात मालूम पड़ती, कि उन्हें बहुत बड़ी चेचक निकली थी; जिससे उनकी बाई आँख जाती रही और उनका चेहरा बदसूरत हो गया।
बूदेशाह के अनुसार, छह वर्ष की उम्र में बालक रणजीत सिंह कुछ दूसरे लड़कों के साथ तैरने के लिए चिनाब नदी पर जाया करता था और जो भी रूपया पैसा या दूसरी चीजें घर से उठा लाता था अपने साथियों के बीच बाँट देता था।

एक विवरण के अनुसार बालक रणजीत सिंह अपनी शिक्षा के लिए गुजरानवाला की एक धर्मशाला में जाया करता था, पर मालूम होता है कि यह शिक्षा ऐसे ही रह गई, क्योंकि रणजीत सिंह बिल्कुल ही अनपढ़ थे। पिता को लड़ाई-झगड़ों से फुरसत नहीं थी, और माँ जनानखाने में रहती थीं। ऐसी हालत में बच्चे की शिक्षा की ओर कौन ध्यान देता? इसके अलावा, सारा वातावरण ही ऐसा था कि रणजीत सिंह सिख सरदारों के शिकार वगैरा के स्वाभाविक शौकों की ओर खासतौर से आकृष्ट हो गए। उस जमाने में नौजवानों को सफल सैनिक बनने के लिए हथियारों से बराबर लैस रहना और उनका ठीक-ठीक इस्तेमाल सीखना जरूरी होता था। रणजीत सिंह ने बंदूकबाजी तो बहुत पहले ही सीख ली थी; और ज्यादा साल नहीं लगे कि उनके पिता उन्हें अपनी लड़ाइयों पर ले जाने लगे; इस तरह उन्हें युद्ध-कला की दीक्षा बहुत जल्द मिल गई। 

अपनी पहली बड़ी लड़ाई का नेतृत्व रणजीत सिंह ने 1790 ई में किया, जब उनकी उम्र सिर्फ दस साल की थी। गुजरात के भंगी सरदार द्वारा अधिकृत सोघरां नगर पर महासिंह ने घेरा डाल रखा था। कुछ महीने बाद जब वे अचानक बीमार पड़ गए, तब उन्होंने रणजीत सिंह को सरदार बना दिया और खुद गुजरावाला लौट गए। भंगी सरदार ने नेतृत्व के इस परिवर्तन से लाभ उठाना चाहा, पर उनकी एक न चल पाई, क्योंकि रणजीत सिंह ने लाहौर से भेजी जाने वाली कुमक को खदेड़ दिया। दुर्भाग्यवश, लंबी लड़ाई के बाद सफलता पाने पर यह बालक जब राजधानी लौटा, तब तक उसके पिता चल बसे थे। यह बात 1792 ई. की है। मृत्यु के समय महासिंह की उम्र सिर्फ 27 साल थी । 

अगले साल ही रणजीत सिंह की हत्या का एक प्रयत्न हुआ, पर वह बच गए। वह शिकार पर निकले थे, और अपने शिकार का पीछा करते-करते वह बिल्कुल अकेले पड़ गए। अचानक एक मुसलमान सरदार हशमत खाँ ने, जिसे महासिंह ने हरा दिया था और जो रणजीत सिंह को मारने की घात में था, हमला कर दिया पर रणजीत सिंह का घोड़ा तभी अपने पिछले पाँवों पर खड़ा हो गया जिससे आक्रमणकारी की तलवार का वार चुक गया और जब तक आक्रमणकारी को दुबारा तलवार उठाने का मौका मिल पाता इस नौजवान शिकारी के वल्लम ने उसका काम तमाम कर दिया। 

उस वक्त रणजीत सिंह की उम्र कम ही थी (सिर्फ 13 साल की) और जमाना भी दूसरा ही था, इसलिए उनकी दिलचस्पी शिकार में कहीं ज्यादा थी। रोजमर्रा के सरकारी कामकाज को उन्होंने अपनी माँ पर और अपने पिता द्वारा नियुक्त प्रशासक लखपतराय पर ही छोड़ रखा था। कुछ साल पहले, जबकि उनके पिता ने कन्हैया मिस्ल के सरदार की प्रतिष्ठा धूल में मिला दी थी, यह बात तय पाई थी कि अपनी पोती (अपने बेटे गुरबख्श सिंह की लड़की) महताब कौर की शादी वह रणजीत सिंह से कर देंगे । महताब कौर की माँ सदाकौर को अपने श्वसुर की मृत्यु के बाद 'कन्हैया' मिस्ल की सारी संपत्ति उत्तराधिकार में मिली थी, क्योंकि उनके पिता पहले ही लड़ाई के मैदान में मारे जा चुके थे। रणजीत सिंह की माँ ने जब देखा कि लड़का राज-काज में मन नहीं लगा रहा है, तो उन्होंने सोचा कि शादी हो जाने से शायद वह जिंदगी की ओर ज्यादा जिम्मेदारी का रुख अख्तियार कर ले। इस तरह, 15 साल की उम्र में ही, कन्हैयाओं की राजधानी बटाला में रणजीत सिंह की शादी हो गई। बड़ी ही धूमधाम से शादी की गई, जिसमें अधिकांश सिख सरदार शामिल हुए। पर वह विवाह कुछ अधिक सफल सिद्ध नहीं हुआ। शायद वधू यह नहीं भूल सकी कि उसके वर के पिता ने ही उसके बाप (गुरबख्श सिंह) का वध किया था; यह भी संभव है कि रणजीत सिंह की शक्ल-सूरत उसे कुछ ज्यादा पसंद न आई हो। जो भी हो, रणजीत सिंह के लिए कन्हैया मिस्ल की सरदारनी की हैसियत में, अपनी सास का प्रभाव और शक्ति दोनों ही लाभदायक थीं; सच पूछा जाए तो दोनों ने ही, अगर अपने स्वार्थ के लिए नहीं तो व्यक्तिगत लाभ के लिए अवश्य ही, एक-दूसरे का उपयोग किया। सदाकौर चाहती थी कि रणजीत सिंह की बदौलत वह अपनी खुद की मिस्ल को फायदा पहुँचाएँ। 1797 ई. में जब रामगढ़ियों ने उनकी जायदाद के लिए खतरा पैदा कर दिया था, तब रणजीत सिंह ने ही रामगढ़िया किले पर घेरा डाल कर उनकी फौजों पर पड़ने वाले दबाव को रोका था।

इस अनुभव से रणजीत सिंह के ज्ञान में भी वृद्धि हुई। उन्होंने देख लिया कि कन्हैयाओं की शक्ति जितनी मानी जाती थी उतनी वस्तुतः थी नहीं; अगर कोई और भी अधिक शक्तिशाली मिस्ल उनके साथ आ जाए, तो वह खुद और भी ज्यादा ताकतवर हो सकेंगे, इसलिए उन्होंने एक नकई सरदार की बहन के साथ अपनी एक दूसरी शादी कर ली (1798 ई. में)। यह शादी हुई तो राजनीतिक दृष्टि से थी, पर व्यक्तिगत दृष्टि से यह एक सफल विवाह सिद्ध हुआ। नकई राजकुमारी राज कौर (रणजीत सिंह की माँ का नाम भी यही था) थीं, तो उनकी दूसरी पत्नी, पर उनसे उन्हें भरपूर वैवाहिक सुख प्राप्त हुआ।

वस्तुतः वही उनकी पटरानी बनीं और महताब कौर का ओहदा उनसे घट कर रहा। दरअसल महताब कौर ने इस स्थिति को सहन भी नहीं किया और वह बटाला ही लौट गईं, और उनकी माँ सदाकौर को स्थिति के इस परिवर्तन से बड़ी खीझ हुई। फिर भी, रणजीत सिंह और महताब कौर से पैदा होने वाले बेटे या बेटों के जरिये सिख मिस्लों पर अपना प्रभाव कायम करने की अपनी योजनाओं को उन्होंने छोड़ा नहीं ।

अधिक-से-अधिक शक्तिशाली बनने की महत्त्वाकांक्षा रणजीत सिंह के अंदर पूरी तरह जग चुकी थी, और उन्होंने अब अपनी ही चलानी शुरू कर दी और राजकाज में ज्यादा दिलचस्पी लेने लग गए। दरअसल इसकी जरूरत यूं भी आ पड़ी, क्योंकि उनके दीवान लखपतराय और उनके एक चाचा दलसिंह के बीच तनातनी शुरू हो गई थी, जो खुद दीवान बनना चाहते थे। जो भी हो, 17 साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते रणजीत सिंह ने पूरी तरह खुदमुख्तार हो जाने और अपने मिस्ल का वास्तविक नेतृत्व अपने हाथ में ले लेने का निश्चय कर लिया। अब तक वह केवल वंशानुगति और उत्तराधिकार के बल पर ही सुक्करचकिया सरदार कहलाते आए थे।


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