Maharaja Ranjit SIngh - 3 in Hindi Biography by Sudhir Sisaudiya books and stories PDF | महाराजा रणजीत सिंह - भाग 3

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महाराजा रणजीत सिंह - भाग 3

बाद के विजय-अभियान

रणजीत सिंह के राज्य का अब तेजी के साथ विस्तार हो रहा था। सन् 1800 ई. में कांगड़ा के राजा संसार चंद ने नेपाली सेनापति थापा के एक नए आक्रमण के विरुद्ध जब फिर से रणजीत सिंह से सहायता माँगी, तो महाराजा वहाँ जा पहुँचे। पर कांगड़ा को उनके हवाले कर देने के अपने वादे को पूरा करने में जब राजा कुछ आनाकानी करता दिखाई दिया, तो रणजीत सिंह ने थापा से लड़ने की खातिर उनका किला दखल कर लिया, और आखिर थापा को खदेड़ दिया। इस युद्ध में सफलता पाने की वजह से विजयी महाराजा के प्रति चंबा, नूरपुर और कोटला जैसे अनेक पहाड़ी राज्यों ने अपनी निष्ठा प्रकट की।  

आधुनिक हरियाणा के इलाके पर तब क्रोड़ सिंधिया मिस्ल का अधिकार था। इस इलाके को दखल करके महाराजा ने वहाँ के शासक सरदार की विधवा स्त्री के भरण-पोषण की व्यवस्था कर दी। फरवरी, 1810 ई. में साहीवाल और गुजरात के बलोच सरदारों ने अपना किला रणजीत सिंह के लिए छोड़ दिया। इसके बाद मुलतान का पतन हुआ जिसके नवाब मुजफ्फर खाँ ने महाराजा को फिर से खिराज दिया। जम्मू, वजीराबाद और डसका भी इसके बाद जल्द ही महाराजा के राज्य के अंग बन गए। बाद को जब नकई इलाके पर चढ़ाई हुई, तो वह भी रणजीत सिंह के शासन के अंतर्गत आ गया।

कश्मीर:

कश्मीर को जीतने के लिए रणजीत सिंह की फौजें 1811-12 ई. में वजीर फतेह खाँ की फौज से जा मिलीं। वहाँ का सूबेदार अता मोहम्मद शेरगढ़ में परास्त हो गया। उसका भाई जहाँदाद खाँ, जो कि अटक की रक्षा कर रहा था, वजीराबाद में मिलने वाली जागीर के बदले में उसे छोड़ चला गया। फतेह खाँ ने गुस्से में आकर 1813 ई. में पंजाब पर हमला कर दिया, पर हजारो में उसकी हार हुई। रणजीत सिंह ने अब अफगानों की शत्रुता के कारण कश्मीर पर चढ़ाई करने की तैयारी कर ली। अफगानों की जगह-जगह हार पर हार होती गई, पर भारी वर्षा के कारण रणजीत सिंह का आगे बढ़ना रुक गया और 1814 ई. में उन्हें लाहौर लौट जाना पड़ा। राजौरी के नवाब के विश्वासघात के लिए उन्होंने उसे जल्द ही सजा दी और उसका इलाका दखल कर लिया ( 1815 ) ।

सन् 1816 ई. में बहावलपुर के नवाब ने उनका जागीरदार बन जाना स्वीकार कर लिया। मुजफ्फर खाँ पर कर का काफी बकाया पड़ जाने की वजह से रणजीत सिंह ने मुलतान को दखल कर लिया, और कुछ वसूली हो जाने के बाद ही नरम पड़े। इसके बाद मनकैरा, झंग और उच भी उनके हाथ लगे। रामगढ़िया सरदारों के बीच भी लगातार झगड़े होते आ रहे थे, और महाराजा ने उनका इलाका छीन कर उन्हें काफी बड़ी जागीर दे दी।

जंग-ए-मुलतान:

मुजफ्फर खाँ को अपने कर का सारा बकाया अदा कर देने के लिए जो मोहलत दी गई थी उसके बीत जाने पर 1817 ई. में कर-वसूली के लिए एक जबर्दस्त फौज मुलतान भेजी गई। नवाब की फौज ने लड़ने के बाद आत्मसमर्पण कर दिया और अपने भरण-पोषण के लिए कुछ इलाका मिल जाने की शर्त पर वह मुलतान और मुजफ्फरगढ़ के किले सौंप देने को तैयार हो गया। पर उसने वादा खिलाफी की, और लड़ाई पहले से भी ज्यादा प्रचंडता के साथ फिर शुरू हो गई। सिख सेना ने किले की दीवारों पर बमबारी शुरू कर दी। पर ऐन मौके पर, जबकि दीवारों में दरार पड़ने को थी, सिखों की तोपगाड़ी का एक पहिया निकल गया। न तो नया पहिया लाने के लिए वक्त था और न उस पहिये की मरम्मत का, इसलिए फौज के नेता ने आत्माहुति देने वाले ऐसे स्वयंसेवकों की माँग की जो टूटे हुए पहिये की जगह अपने कंधे लगाने को तैयार हों। और यह आत्माहुति देने के लिए सबसे पहले वह खुद ही आगे आया। कई जानें गईं, पर दीवार टूट गई। कुछ ही देर बाद बूढ़ा नवाब खुद अपने लड़कों को साथ ले उस स्थल की रक्षा के लिए आ पहुँचा, पर सिखों की तलवारों ने उसे मौत के घाट उतार दिया। 15 जून, 1818 ई. को किला फतह हो गया। किले की दीवार के एक हिस्से के नीचे सुरंग लगाकर उसे उड़ा देने के काम में निहंगों के एक जन्थे ने बहुत बड़ा हिस्सा लिया।

पेशावर:

वजीर फतेह खाँ की हत्या के बाद काबुल में अव्यवस्था की जो स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसकी ओर अब रणजीत सिंह का ध्यान गया और उसी साल वह फौज लेकर अटक जा पहुँचे। उसे दखल करके महाराजा के सैनिकों ने पेशावर में प्रवेश करने के लिए सिंधु नदी को पार किया। पर अफगान शासक दोस्त मोहम्मद ने रणजीत सिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया और कर देने के लिए राजी हो गया। रणजीत सिंह ने इसके बाद उसे ही वहाँ का अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। भारत में विदेशियों के इस प्रवेशद्वार पर महाराजा का अधिकार हो जाने से स्थिति में बहुत बड़ा अंतर आ गया। अफगानों का इस रास्ते भारत में प्रवेश ही इससे नहीं रुक गया, बल्कि उलटे उन्हें ही अब लेने के देने पड़ गए और आक्रमणकारी विजेताओं के स्थान पर अब वे अपनी ही जगह छोड़कर भागने के लिए मजबूर हो गए।

फिर कश्मीर:

तमाम कोशिशों के बावजूद कश्मीर को अभी तक नहीं लिया जा सका था। अपने राज्य की उत्तरी सीमा को सुरक्षित करने के लिए रणजीत सिंह उसे ले लेना चाहते थे, इसलिए 1819 ई. में तीन अलग-अलग सेनाएँ उस ओर रवाना की गई, जिनमें से एक का सेनापतित्व महाराजा स्वयं कर रहे थे। राजौरी और पुंछ दोनों ही जगहों पर अफगान फौजों की हार हुई। पीर पंजाल के नीचे होने वाली लड़ाई में विजय पाकर रणजीत सिंह ने कश्मीर घाटी को पार कर लिया और 4 जुलाई, 1819 ई. को श्रीनगर पर उनका कब्जा हो गया। बराबर बदलते रहने वाले अपने इतिहास में कश्मीर और जम्मू को, इस तरह, किसी वक्त सिख राज्य का अंग बनकर भी रहना पड़ा।

नौशेरा की लड़ाई:

सन् 1823 ई. में काबुल के वजीर अजीम खाँ ने पेशावर पर हमला कर दिया, जिस पर तब रणजीत सिंह के प्रतिनिधि की हैसियत से उसके भाई यार मोहम्मद का कब्जा था। पेशावर पर अधिकार करके अजीम खाँ ने सिखों के खिलाफ जिहाद (धर्मयुद्ध) की घोषणा कर दी। महाराजा ने यह खबर पाते ही स्थिति का मुकाबला करने के लिए एक बड़ी फौज भेजी। दरअसल एक मौके पर तो वह खुद ही युद्धस्थल पर जा पहुँचे और फौज की अपनी टुकड़ी को लेकर सिंध नदी पार करते हुए नौशेरा जा धमके, जहाँ कि पठानों की मुख्य सेना एकत्र थी। 14 मार्च, 1824 ई. को दोनों फौजों के बीच टक्कर हुई, और विजय सिखों के हाथ लगी। रणजीत सिंह ने पेशावर में दाखिल होकर अजीम खाँ के भाइयों से आत्म-समर्पण कराया और फिर अपनी ओर से उस शहर पर कब्जा रखने का काम उन्हीं के सुपुर्द कर दिया।

सन् 1827 ई. में एक बार फिर पेशावर युद्धस्थल में परिणत हो गया। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक धर्मांध मुसलमान ने पठानों को 'जिहाद' के लिए संगठित करके युद्ध छेड़ दिया था। हार उसी की हुई, पर इससे भी उसका जोश ठंडा नहीं पड़ सका, और सन् 1828 ई. में उसे किसी तरह शहर को दखल कर लेने में सफलता मिल गई। उसके अत्याचारी 'फतवों' की वजह से पेशावरी मुसलमान तक उससे और उसके अनुयायियों से नफरत करने लगे। सन् 1830 ई. में महाराजा ने अपनी फौज भेजकर पेशावर को इन धर्मांध पागलों के पंजे से छुटकारा दिलाया। आखिर 1831 ई. की एक लड़ाई में सैय्यद को, जो इस सारी खुराफात की जड़ था, मार डाला गया।

कूटनीतिक प्रयत्न:

रणजीत सिंह की शक्ति और महत्व के बढ़ जाने पर दूसरे शासकों को उनकी मित्रता प्राप्त करने की जरूरत महसूस होने लगी। सन् 1826 ई. में निजाम (हैदराबाद) का एक प्रतिनिधि अपने मालिक की ओर से उपहार-सामग्री लेकर लाहौर आया था। इन उपहारों में एक परम सुंदर चंदोवा था, जिसे महाराजा ने स्वर्ण मंदिर को भेंट कर दिया। 1831 ई. में एक लेफ्टिनेंट बर्न्स ब्रिटिश सम्राट की ओर से उपहार के रूप में पाँच घोड़े और एक गाड़ी लाया। इस राजदूत का प्रमुख उद्देश्य राजनीतिक और भौगोलिक जानकारी प्राप्त करना था, विशेष‍ रूप से सिंध नदी में स्टीमरों को चलाने की सुविधाओं के बारे में। उसी साल महाराजा ने नए गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कोई जवाबी शिष्टमंडल न भेज, खुद ही महाराजा से आकर भेंट करने का निश्चय किया, और ऐसी तरकीब भिड़ाई कि महाराजा उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित करें। 16 अक्तूबर को रूपड़ में दोनों के बीच मुलाकात हुई, और पूरे एक हफ्ते तक बातचीत, फौजी मुआइने और आमोद-प्रमोद का बाजार गरम रहा, किंतु इस मिलन से रणजीत सिंह को सिवा इस लिखित आश्वासन के कि दोनों पक्षों के बीच 'हमेशा के लिए' दोस्ती बनी रहेगी, और कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ। उल्टे उन्हें साफ तौर पर यह इशारा किया गया कि सिंध को जीतने की अपनी आकांक्षा उन्हें छोड़ देनी चाहिए : उनके राज्य की दक्षिणी सीमा में और अधिक विस्तार की गुंजाइश नहीं है। साथ ही दुनिया पर यह छाप जरूरी छोड़ी गई कि उनके बीच पूर्ण मतैक्य है, किंतु अंग्रेजों ने उधर सिंध के अमीर के साथ भी बातचीत चला रखी थी, जिसके फलस्वरूप 1832 ई. में उसके साथ उनकी एक संधि हो गई। इस संधि द्वारा अंग्रेजों को सिंध पर जहाज चलाने और उन पर ले जाने वाले माल पर कर वसूलने के बारे में आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त हो गईं। इस समझौते में 1834, और फिर 1839 में परिवर्तन भी हुए।

जमरूद की लड़ाई:

काबुल के भूतपूर्व बादशाह शाह शुजा और मशहूर कोहेनूर हीरे की कहानी अन्यत्र कही जाएगी। सन् 1811 ई. में रणजीत सिंह के सेनापति कश्मीर में नजरबंद शाह शुजा को लाहौर लाए। बाद को अंग्रेजों ने उन्हें लुधियाना में नजरबंद कर दिया। अपनी गद्दी फिर से वापस पाने की अपनी पिछली सारी योजनाओं के विफल हो जाने पर शाह सूजा ने 1833 ई. में रणजीत सिंह के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। संधि की शर्तें यह थी कि महाराजा से उन्हें मदद मिलेगी और बदले में सिंध नदी के दोनों ओर के उन इलाकों पर महाराजा का अधिकार बना रहेगा, जिन पर उनका कब्जा हो चुका था, लेकिन 1884 ई. में शाह शुजा ने अपना राज्य वापस पाने का जो अगला प्रयत्न किया वह भी विफल सिद्ध हुआ और हार कर वह फिर पंजाब में निर्वासित होकर रहने लगे। 

शाह शुजा और काबुल के वास्तविक शासक दोस्त मुहम्मद के बीच होने वाले इस संघर्ष के कारण महाराजा ने पेशावर को अपने नियंत्रण में ले लेने का फैसला कर लिया और अपने पौत्र को वहाँ का सूबेदार बना दिया। दोस्त मुहम्मद ने इसके जवाब में 1835 ई. में पेशावर पर धावा बोल दिया, पर महाराजा के पहुँचते ही उसे काबुल लौट जाना पड़ा। रणजीत सिंह ने पेशावर को अफगानों के हमले से बचाने के लिए वहाँ दो नए किले बनवाए। 1835 ई. की अपनी शर्मनाक हार और सिखों की यह नई किलेबंदी दोस्त मुहम्मद के दिल में बराबर कसकती रही और 1837 ई. में उसने सिखों को खदेड़ने और पेशावर पर कब्जा करने की नीयत से जमरूद पर घेरा डाल दिया। रणजीत सिंह के प्रतिनिधि हरि सिंह नलवा को, बीमारी की हालत में भी जमरूद में घिरे हुए दुर्ग-रक्षकों की मदद के लिए पेशावर छोड़ वहाँ जाना पड़ा। दुर्भाग्यवश वह एक गोली के शिकार हो गए, तब जमरूद में घिरी हुई फौज की रक्षा के लिए खुद महाराजा को ताबड़तोड़ युद्ध स्थल पर पहुँचना पड़ा, लेकिन उनके पहुँचने से पहले ही अफगान भाग खड़े हुए थे, और इस प्रकार स्थिति अपरिवर्तित ही रह गई।

त्रिदलीय संधि:

यह वह वक्त था, जबकि भारत स्थित अंग्रेजों को सचमुच यह चिंता हो गई थी कि ईरान और टर्की की मदद से कहीं रूस सिंध नदी तक न बढ़ आए। ईस्ट-इंडिया कंपनी ने सोचा कि अगर काबुल के तख्त पर कोई ऐसा आदमी बिठाया जा सके जो उनका दोस्त बनकर रहे, तो यह खतरा टल सकता है। शाह शुजा इस दृष्टि से उपयुक्त दिखाई दिया, पर उसकी कुछ शर्तें थीं। इनमें से एक थी रणजीत सिंह की विस्तार-नीति के विरुद्ध स्पष्ट गारंटी की माँग, और दूसरी, पेशावर पर फिर से अधिकार। सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस नगर को छोड़ने के लिए महाराजा किसी प्रकार भी तैयार नहीं थे, पर लॉर्ड ऑकलैंड का दबाव पड़ने पर वह इस योजना के अनुसार काम करने को तैयार हो गए, हालाँकि शासक के रूप में शाह शुजा के लिए उनके मन में कुछ ज्यादा आदर नहीं था। उन्होंने यह भी देख लिया कि अंग्रेज जब काबुल वाली अपनी योजना को कार्य रूप देने पर तुले ही हुए हैं, तब उससे अपने को अलग कर लेने में भी बुद्धिमानी नहीं है, इसलिए 20 जून, 1838 ई. को जो संधि की गई वह अंग्रेजों, रणजीत सिंह और शाह शुजा के बीच होने वाली एक त्रिदलीय संधि थी।

फीरोजपुर में इस लड़ाई के लिए जो फौज इकट्ठा की गई उसमें अधिकतर अंग्रेज सैनिक टुकड़ियाँ ही थीं। यह फौज बहावलपुर, सिंध और बोलान दर्रे के रास्ते कंधार पहुँची, जिस पर 1839 ई. के अप्रैल महीने के आखिर में कब्जा कर लिया गया। सिख सेना पंजाब के रास्ते बढ़ी।

इस सैन्य-शक्ति की सफलताओं और विफलताओं का ब्यौरा पेश करना इस कथानक के दायरे से बाहर है, किंतु काबुल के ब्रिटिश-अभियान में रणजीत सिंह का शामिल होना यह साफ दिखाता है कि 'फिरंगियों' की बढ़ती हुई ताकत का उन्हें भान हो चुका था। फिर, अब वह यों भी अपनी शक्ति की सीमा तक पहुँच चुके थे। बहुत ज्यादा लड़ाइयों और नाना प्रकार के असंयमों के कारण उनका शरीर भी जर्जर हो चला था, और 27 जून, 1839 ई. को आखिर वह प्रकृति की गोद में सो गए।