Maharaja Ranjit SIngh - 6 in Hindi Biography by Sudhir Sisaudiya books and stories PDF | महाराजा रणजीत सिंह - भाग 6

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महाराजा रणजीत सिंह - भाग 6

महाराजा की फौज में यूरोपियन अफसर
रणजीत सिंह बड़े अच्छे सेनाध्यक्ष थे, पर उससे भी ज्यादा अच्छे संगठनकर्ता थे। युद्धों में उनकी विजय का एक बड़ा कारण यह था कि सिखों की जिस फौज को पहले एक गिरोह या झुंड ही कहा जा सकता था; उसे उन्होंने एक अनुशासित, सुगठित और सुशस्त्र सज्जित सेना में परिणत कर दिया। उन्होंने यह भी महसूस कर लिया था कि उन्हें पिछली प्रथा से विपरीत सवारों के मुकाबले पैदल सेना को अधिक महत्व देना है। अंग्रेजों की पद्धति पर उन्होंने अच्छी तरह विचार किया था जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपनी सेना में भी वही पद्धति लागू कर दी और पैदल सेना को घुड़सवारों पर तरजीह दी। इस परिवर्तन को लागू करने के लिए उन्होंने यूरोपियन अफसरों को नियुक्त करके उनसे मदद ली।

रणजीत सिंह के जमाने में रंगरूटों की भरती कठिन नहीं थी, क्योंकि महाराजा के यहाँ नौकरी करने के लिए लोग लालायित रहते थे, और पैदल सेना के लिए ताकतवर और खूबसूरत जवानों को भरती करने के बारे में उनकी कड़ी ताकीद थी। जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, उनकी सैन्य शक्ति बढ़ती चली गई। 1811 ई. जहाँ रणजीत सिंह की स्थायी सेना में 4,000 ही सैनिक थे, वहाँ उनके राज्यकाल के अंतिम दिनों में उनकी संख्या बढ़कर 38,000 से भी ऊपर हो गई थी—लगभग 29,500 पैदल सेना में; 4,000 घुड़सवारों में और 4,500 तोपखाने में। सेना पर माहवारी खर्च लगभग पौने चार लाख रुपये था। महीने-महीने वेतन देने की प्रथा ईस्ट इंडिया कंपनी की देखादेखी शुरू की गई थी, पर अकसर उसकी अदायगी में महीनों की देरी हो जाती थी। सैनिकों की नौकरी तभी तक कायम रहती थी जब तक वह लड़ाई के लायक रहते थे। सेवा-निवृत्ति पर यों तो उन्हें कुछ भी नहीं मिलता था, पर उनके लड़कों या निकट के दूसरे रिश्तेदारों द्वारा ही उन रिक्त स्थानों की पूर्ति की जाती थी। युद्धक्षेत्र में मरने या घायल हो जाने वालों के लिए 'घर्मार्थ' पेंशन की व्यवस्था थी।

स्थायी या नियमित सेना के अलावा एक कच्ची घुड़सवार सेना भी थी जिसे 'घोड़चढ़ा' फौज कहा जाता था। इन सवारों को अपना प्रबंध खुद ही करना होता था। ये कई समूहों और उपसमूहों में विभाजित थे। हर घुड़सवार का वेतन और भत्ता उसके घोड़े की स्थिति को देखकर निर्धारित किया जाता था। जरूरत के वक्त पर जागीरदारों की टुकड़ियों को कुमक के दस्तों के रूप में मँगाया जाता था, पर उन्हें अपेक्षाकृत साधारण काम ही दिए जाते थे। पैदल सैनिक का वेतन सात रुपये मासिक से कुछ ही अधिक था, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के वेतन-दर की तुलना में बुरा नहीं था।

पर इनमें से किसी प्रकार के पारिश्रमिक, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, नियमित रूप से नहीं अदा किए जाते थे। एक बार एक गुरखा बटालियन अपने बकाया वेतन की रकम के लिए इतना बिगड़ गया था कि उसके कोप से बचने के लिए रणजीत सिंह तक को गोविंदगढ़ के किले की शरण लेनी पड़ी थी। उनकी मृत्यु के बाद सैनिकों की संख्या और वेतन दोनों में ही वृद्धि की गई, जिसका नतीजा यही हुआ कि राज्य के राजस्व पर सेना का बोझ असह्य हो उठा। सर लेपेल ग्रिफिथ के अनुसार, 1839 ई. में सैनिकों की कुल संख्या 29,168 थी और तोपों की 192; इन पर होने वाला कुल मासिक व्यय 3,82,008 रुपये था। 1845 में यही आँकड़े क्रमशः 72,370; 381; और 8,52,696 रुपये थे।

यूरोपियन अफसर
रणजीत सिंह की फौज में नियुक्त यूरोपीय अफसरों के बारे में भिन्न-भिन्न अनुमान हैं। इनकी संख्या 20 से लेकर 42 तक बताई गई है। इनमें सबसे अधिक प्रमुख निस्संदेह वांतुरा और अलार थे। दरअसल रणजीत सिंह बहुत पहले से ही यह सोचते आ रहे थे कि अपने सैनिकों का प्रशिक्षण वह यूरोप के तरीके से कराएं-एक बार तो वह वेश बदलकर लार्ट लेक की सेना की परेड देखने भी गए थे। इन दोनों यूरोपियनों को केवल इतना ही श्रेय है कि उन्होंने एक ऐसी योजना को कार्यान्वित किया जिसे महाराजा पहले ही तैयार कर चुके थे और जिसे वह आँशिक रूप में कार्यान्वित भी कर रहे थे।

इन दोनों फ्रांसीसियों के लाहौर पहुँचने और महाराजा की सेवा में नियुक्त होने की कहानी दिलचस्प है। ये लोग 1822 ई. के प्रारंभ में वहाँ पहुँचे थे। रणजीत सिंह से मिलने पर उन्होंने यही कहा था कि वे यूरोपियन सैनिक हैं और यूरोप तथा एशिया का भ्रमण करते हुए लाहौर आए हैं; वे काम की तालाश में नहीं हैं, पर उनकी 'किस्मत' उन्हें जहाँ ले जाएगी वहाँ तो उन्हें जाना ही है। जब महाराजा ने उनसे कहा कि वे एक बटालियन से कवायद कराके दिखाएँ, तब उन्होंने इससे इनकार कर दिया और कहा कि ऐसा करने के बजाय वे रंगरूटों को प्रशिक्षित करना कहीं ज्यादा पसंद करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसा करने के लिए वह कोई पारिश्रमिक नहीं लेंगे, पर अगर स्थायी रूप से उन्हें नौकरी दी गई, तो वे 'अपने घोड़ों और नौकरों के खर्च के अलावा दस स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन' लेंगे। दो महीने का उनका काम परखने के बाद ही रणजीत सिंह को इत्मीनान हो गया कि ये लोग उन्हें धोखा देने नहीं आए हैं और सचमुच ही ये नेपोलियन बोनापार्ट की फौज में रह चुके हैं। महाराजा ने उनकी शर्तें स्वीकार कर लींः जां फ्रांसुआ अलार को घुड़सवार सेना का काम दिया गया और जां बातिस्त वाँतुरा को पैदल सेना का; पूर्वोक्त ने घुड़सवार सिपाहियों का एक सैन्य-दल तैयार किया और उपरोक्त को 'फौज खास' का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया।

अलार
दोनों फ्रांसीसियों में से अलार महाराजा के अधिक निकट पहुँच गए थे और अपने स्वामी के लिए उनके हृदय में सच्ची निष्ठा थी। एक बार जब छुट्टियों में वह पेरिस गए, तब फ्रांस के बादशाह लुई फिलिप के दरबार में हाजिर होकर उन्होंने उनके प्रति रणजीत सिंह की शुभ-कामनाएँ व्यक्त कीं। बादशाह ने भी बदले में महाराजा को एक पत्र लिखा और उनके लिए कुछ शस्त्रास्त्र भिजवाए। अलार ने अपनी ओर से रणजीत सिंह के लिए जो यह कदम उठाया उससे वह बड़े खुश हुए और उन्हें विशेष पारितोषिक दिया। दिल का दौरा पड़ने पर 1839 ई. में जब जनरल अलार की पेशावर में मृत्यु हो गई तब उनका शव दफनाने के लिए लाहौर लाया गया। उन्होंने एक कश्मीरी स्त्री से शादी की थी।

वाँतुरा
वाँतुरा की योग्यता के लिए रणजीत सिंह के दिल में बड़ी कद्र थी। फौज खास के सेनाध्यक्ष के रूप में जनरल वाँतुरा ने कई लड़ाइयों में नाम कमाया, खासतौर से पहाड़ियों की लड़ाइयों में। एक बार वह लाहौर के काजी और सूबेदार दोनों ही पदों पर नियुक्त थे। कुछ साल पहले जब उन्होंने लुधियाना में एक आरमीनियन स्त्री से शादी करनी चाही, तब महाराजा ने 'दंपत्ति को कीमती उपहारों से लाद दिया।' यों जनरल वाँतुरा ने कई कश्मीरी और पंजाबी औरतें भी रख छोड़ी थीं, पर जब वह पेरिस लौटे तब सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि अपनी शादीशुदा स्त्री को भी छोड़ गए।

आविताबिले
पाओलो द' आविताबिले इटली के थे और उन्होंने बड़े महत्व की स्थिति प्राप्त कर ली थी। रणजीत सिंह खुद भी एक योद्धा ही थे और एक मामूली सिपाही रह चुके थे, इसलिए उन्होंने उनके गुणों की भरपूर कद्र की और 5,000 रुपये मासिक वेतन के अलावा उन्हें कीमती जागीरें भी दीं लेकिन आविताबिले अपरिष्कृत रुचि के आदमी थे। प्रशासक के रूप में वह असाधारण रूप से कठोर थे। पेशावर के सूबेदार बनाए जाने पर उन्होंने पठान कबायलियों को जिन तरीकों से झुकाया — गुंडों और लुटेरों को फाँसी पर झुलाकर और झूठ बोलने वालों और चुगलखोरों की जीभ काट कर उसके कारण छह महीने भी नहीं लगे होंगे कि शहर में जुर्म होने बिल्कुल बंद हो गए।

आंरी कूर
आविताबिले के एक फ्रांसीसी सह-यात्री थे आंरी कूर, जिन्होंने उनके साथ-ही-साथ महाराजा की नौकरी शुरू की। पर उनकी प्रकृति और शिक्षा-दीक्षा बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी। वह अच्छे कुल के और उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति थे और आविताबिले से विपरीत वह नम्र और शिष्ट थे, किंतु उन्हें आविताबिले से आधा ही वेतन मिलता था। उच्च कोटि के सैनिक होने के साथ-साथ वह अच्छे विद्वान भी थे, यहाँ तक कि 'रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी' के 'फेलो' भी थे। रणजीत सिंह की कितनी ही सोचें उन्हीं के कारण ढल सकीं। पर अपने दोस्त की तरह उन्होंने भी भारतीय स्त्रियों को लेकर एक हरम बना लिया था। 1845 ई में जब वह पंजाब से विदा हुए तब तक वह काफी संपत्तिशाली हो गए थे।

इस प्रसंग में यहाँ बता देना उचित होगा कि अलार और वाँतुरा को जब नियुक्त किया गया था तब शुरू-शुरू में आमतौर पर उन्हें अविश्वास और संदेह की ही दृष्टि से देखा जाता था। गुरखा बटालियन के नायक ने तो (जिसकी फौजी वरदी का डिजाइन वाँतुरा ने ही तैयार किया था)। उन फ्रांसीसियों का हुक्म मानने के लिए कहे जाने पर महाराजा तक की बात मानने से इनकार कर दिया था। रणजीत सिंह के मन में भी संदेह था ही कि कुछ यूरोपियन अंग्रेजों के गुप्तचर हो सकते हैं और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच उनका झगड़ा हो गया, तो शायद वे लोग उनके प्रति वफादार न रहें। पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, अलार और वाँतुरा के अच्छे बरताव ने यूरोपियों के विरुद्ध रणजीत सिंह के संदेह को दूर कर दिया। पर इस बात से इनकार करना बेकार होगा कि इन 'फिरंगियों' को दी गई जागीरों के कारण सिख और पंजाबी सरदारों के दिलों में कम मलाल नहीं था। जो भी हो, महाराजा ने तो उन्हें भारतीय स्त्रियों से विवाह करने, गोमांस न खाने और सिखों के लिए निश्चित पाँच ककारों का पालन करने के लिए प्रोत्साहित करके पंजाबी ही बना लेने की कोशिश की थी।