न के बराबर लोग
समाज में कुछ लोग होते हैं —
होते हुए भी न के बराबर,
जैसे भीड़ में पड़े वो सूखे पत्ते,
जिन्हें हवा भी उठाने से कतराए बार-बार।
किसी घटना पर न उनकी भौंहें उठतीं,
न किसी दर्द पर दिल काँपता है,
पराये दुख उन्हें छूते नहीं,
मानो पत्थर की नसों में जमकर जम गया जाड़ा है।
ना किसी की आवाज़ पर कान देते,
ना किसी मदद को हाथ बढ़ाते,
जैसे इंसान नहीं,
बस चलते-फिरते बेजान साँचे हों,
जो सिर्फ साँस लेकर समाज का हिस्सा भर कहलाते।
पर जब वक्त की आंधी
सीधे इनके दरवाज़े पर दस्तक देती है —
तब अचानक ये लोग ‘इंसानियत’ का झंडा उठाते दिखाई देते हैं।
दोहाई देने लगते हैं उस संवेदना की,
जिसे कभी खुद जगाया ही नहीं,
रोने लगते हैं उस दर्द पर,
जिसे दूसरों में पहचाना ही नहीं।
समाज की नींव इन्हीं से डोलती है,
जो वक्त पर चुप और मुसीबत में loud हो जाते हैं—
और फिर भी उम्मीद रखते हैं
कि दुनिया उन्हें ‘अच्छा’ मान लेगी।
ये वही लोग हैं—
होते हुए भी न के बराबर,
पर अपने फायदे की बारी आए
तो सबसे पहले कतार में खड़े नजर आते हैं।
आर्यमौलिक