श्रद्धा, विश्वास और आस्था : आत्मा का विज्ञान ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
श्रद्धा, विश्वास और आस्था कोई वस्तुएँ नहीं हैं —
जिन्हें खरीदा, बेचा या दान में पाया जा सके।
ये फल हैं, परिणाम हैं,
जो मनुष्य के स्वभाव, कर्म और चेतना की परिपक्वता से उपजते हैं।
जिसके भीतर श्रद्धा है,
वह किसी से नहीं माँगता।
जिसके भीतर विश्वास है,
वह किसी पर थोपता नहीं।
और जिसकी आस्था जीवित है,
वह किसी संस्था या धर्म की दीवारों में नहीं बँधता।
आज धर्म ने इन तीनों को व्यापार बना दिया है।
हर धार्मिक कहता है —
“तुम्हारे भीतर श्रद्धा नहीं थी, इसलिए तुम असफल हुए।”
यह कथन मनुष्य को उसकी आत्मा से काट देता है।
यह संकेत है कि तुम्हारा स्वभाव नीच है,
तुम पापी हो, तुम्हारे भीतर पवित्रता नहीं है।
और जब मनुष्य यह मान लेता है,
वह मंदिर, पंडित, पुरोहित और ज्योतिष के चक्र में फँस जाता है —
जहाँ श्रद्धा और आस्था बेची जाती हैं।
पर सत्य इसके उलट है।
श्रद्धा किसी आचार्य या मंत्र का दान नहीं,
वह तो आत्मा की ऊर्जा का प्रस्फुटन है।
आत्मा हर क्षण तुम्हारे कर्म, विचार और व्यवहार से परिपक्व होती है।
यही विकास “अहं” से “ब्रह्म” तक की यात्रा है।
और यह यात्रा किसी तीर्थ या पूजा से नहीं,
बल्कि स्वभाव की साधना से पूरी होती है।
धर्म का बाज़ार तत्काल परिणाम चाहता है —
लोगों को सपने बेचता है,
भविष्य का सौदा करता है।
वह कहता है — “तुम्हारे दुख मिट जाएंगे, तुम्हें वरदान मिलेगा।”
पर यह खेल खतरनाक है।
जो जीवन को समझे बिना सफलता की भीख माँगता है,
वह धीरे-धीरे अंधकार और निर्भरता में डूब जाता है।
उसकी आस्था अब अनुभव नहीं,
एक नशा बन जाती है।
भीड़ इसी नशे की भीड़ है।
लाखों लोग मंदिरों और गुरुओं के पीछे भागते हैं —
क्योंकि उन्हें अपने भीतर झाँकने का साहस नहीं।
वे चाहते हैं कोई दूसरा उन्हें आस्था दे दे,
कोई गुरु उन्हें विश्वास का प्रमाणपत्र दे दे।
पर जो भीतर से रिक्त है,
उसे कोई बाहरी आलोक नहीं भर सकता।
सत्य में श्रद्धा, विश्वास और आस्था
कभी बाहर से नहीं आतीं।
वे जीवन के ढंग से जन्म लेती हैं।
जैसे सूर्य अपने ताप से तेजस्वी होता है,
वैसे ही आत्मा अपने कर्म से विकसित होती है।
यह क्रमिक विकास है —
विज्ञान की तरह, प्रकृति की लय में।
यह तत्काल नहीं होता,
क्योंकि यह व्यापार नहीं, विकास है।
जो भीतर से सच्चा है,
वह किसी भीड़ का हिस्सा नहीं बनता।
वह धर्म का उपभोक्ता नहीं,
धर्म का अनुभवकर्ता होता है।
वह जानता है —
ईश्वर बाहर नहीं,
वह तो उसके भीतर की कर्तव्यनिष्ठ चेतना है।
यही आत्मा है, यही ब्रह्म है, यही ईश्वर है।
मैं धर्म का विरोधी नहीं,
पर धर्म के नाम पर चलने वाले व्यापार का साक्षी हूँ।
मुझे न मंदिर चाहिए, न अनुयायी।
मैं कोई संस्था नहीं, कोई पंथ नहीं।
मैं केवल एक संदेश का वाहक हूँ —
जिसका स्रोत वही है जहाँ से वेद, उपनिषद् और गीता निकले थे।
वह मौन जो सबके भीतर समान रूप से धड़कता है।
ऋषियों की भूमि इसलिए पवित्र थी
क्योंकि वहाँ अनुभव था, व्यापार नहीं।
उनका तप, उनकी मौन दृष्टि ही शक्ति-पीठ बनी।
आज मंदिर बचे हैं, पर वह ऊर्जा नहीं।
क्योंकि केंद्र अब बाहर बन गया है, भीतर नहीं।
मंदिर भीख माँगने का स्थान नहीं,
अपने भीतर लौटने का द्वार था।
पर जब आत्मा अंधी हो जाती है,
तो तीर्थ भी बाज़ार बन जाता है।
श्रद्धा, विश्वास और आस्था का मार्ग
भीतर की पवित्रता से शुरू होता है —
सत्य में जीने से, ईमानदारी से कर्म करने से,
दूसरे को नीचा दिखाए बिना,
और किसी को आगे बढ़ाने की चाह में बिना झूठ के।
जीने का ढंग ही साधना है।
जो जीवन को पवित्रता से जीता है,
वही सच्चा भक्त है।
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सूत्र:
> “श्रद्धा न खरीदी जाती है, न सिखाई जाती है —
वह जीवन के ईमानदार क्षणों में जन्मती है।
जो भीतर से सच्चा है,
वही ब्रह्म का अंश है,
और वही धर्म का सार।”
📜 ✍🏻 agyat agyani (अज्ञात अज्ञानी