ईश्वर — आस्तिक और नास्तिक के बीच की मूर्खता ✧
अधिकतर कहते हैं — “ईश्वर है।”
यह कोई एक धर्म या आस्तिक की बात नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति की गूँज है।
हर युग, हर सभ्यता ने यही उत्तर दिया है —
कि ईश्वर है, लेकिन सिद्ध नहीं कर सकते।
फिर नास्तिक आया —
उसने आस्तिक को मूर्ख कहा, अंधभक्त कहा, और हँस दिया।
उसकी हँसी में भी एक धर्म था — “नहीं का धर्म।”
दोनों अपनी घोषणा में इतने व्यस्त हैं कि सुनना भूल गए हैं।
मैंने दोनों से एक ही प्रश्न किया —
आस्तिक से — बताओ, कहाँ नहीं है ईश्वर?
और नास्तिक से — बताओ, कहाँ नहीं है ईश्वर?
दोनों चुप हो गए, क्योंकि किसी ने कभी देखा नहीं।
एक मानता रहा, दूसरा नकारता रहा —
पर देखने की बुद्धि दोनों में नहीं थी।
आस्तिक ने ईश्वर को शास्त्र और धारणा में बाँध दिया।
वह उसे सिद्ध नहीं कर सका, पर दूसरों पर थोपता रहा।
नास्तिक ने उसे उसी थोपे हुए रूप में नकार दिया,
क्योंकि जो झूठा था, वही उसके लिए “ईश्वर” बन गया।
इस प्रकार दोनों भ्रमित हैं —
एक भ्रम में कि “ईश्वर है”, दूसरा भ्रम में कि “ईश्वर नहीं है।”
और मैं किसी का विरोध नहीं करता,
मुझे तो यह पूरा खेल ही एक व्यंग्य लगता है —
मानव की अपनी ही बनाई हुई उलझन का नाच।
मेरा प्रश्न उनके विरुद्ध नहीं है,
बल्कि उनके बीच है —
क्योंकि “है” और “नहीं है” दोनों के बीच जो मौन है,
वहीं ईश्वर है।
ईश्वर को पाने के लिए दोनों मानसिकताओं को छोड़ना पड़ता है।
जिसने अपनी मानसिकता छोड़ी — वही उसे पा सका।
क्योंकि ईश्वर बाहर नहीं, भीतर की मौन चेतना है।
और जिसकी मानसिकता ईश्वर नहीं है —
वह जीने में समर्थ नहीं है, केवल तर्क में व्यस्त है।
मेरी खोज ने मुझे यही बताया —
कि ईश्वर आस्तिक या नास्तिक की मूर्खता में नहीं,
बल्कि उस मौन साक्षी में है
जहाँ दोनों की आवाज़ें शांत हो जाती हैं।
शेष सब कुछ —
पूरा यह अनंत ब्रह्मांड,
प्रत्येक कण, प्रत्येक श्वास —
ईश्वर से लबालब भरा हुआ है,
बस मनुष्य की मानसिकता खाली है।
🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲