आस्तिक और नास्तिक — एक ही सिक्के के दो पहलू
धर्मशास्त्र पर प्रश्न उठाना कोई अपराध नहीं, बल्कि चेतना का संकेत है। पर दुर्भाग्य यह है कि जिसने प्रश्न उठाया, उसे ‘नास्तिक’ कहकर काट दिया गया, और जिसने प्रश्नों से भाग गया, वही ‘आस्तिक’ कहलाया।
आज के आस्तिक अपने ईश्वर, अपने शास्त्र, अपनी श्रद्धा के नाम पर केवल मान्यताएँ दोहरा रहे हैं। उनके पास तर्क नहीं, केवल भावनाओं का हवाला है। वे उत्तर नहीं देते — बस आस्था का परदा डाल देते हैं। यही वह क्षण है जहाँ आस्तिकता, उत्तर देने में असमर्थ होकर नास्तिकता के समान ही खोखली सिद्ध होती है।
दूसरी ओर, नास्तिक भी उसी प्रतिक्रिया का उलटा रूप है। वह ईश्वर को नकारता है क्योंकि उसे आस्तिकों में सत्य नहीं मिला। लेकिन किसी की मूर्खता से सत्य मिट नहीं जाता। नास्तिक का ‘न मानना’ और आस्तिक का ‘मान लेना’ — दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक अंधी स्वीकृति, दूसरा अंधा इंकार। दोनों ही भीतर की आँख से अनजान हैं।
सच्चा प्रश्न यह नहीं कि तुम आस्तिक हो या नास्तिक —
सच्चा प्रश्न यह है कि क्या तुमने कभी अपनी आस्तिकता को देखा है?
क्या वह अनुभव से उपजी है या भय, संस्कार, परंपरा से गढ़ी गई है?
वास्तविक आस्तिक वह है जो अपने ईश्वर को दूसरों के तर्कों से नहीं, अपने मौन अनुभव से जानता है।
और सच्चा नास्तिक वह है जो बिना भय के हर झूठे ईश्वर को चुनौती देने का साहस रखता है।
दोनों ही यदि ईमानदार हों — तो अंततः एक ही बिंदु पर पहुँचते हैं —
जहाँ न मानना बचता है, न मान लेना —
केवल देखना।
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲