“बुद्धत्व”
जो आज भी अकेला चलता है —
वह भीड़ से नहीं, अपने भीतर से जुड़ा है।
उसे साथ की ज़रूरत नहीं, क्योंकि उसे सत्य का स्वाद मिल चुका है।
जो प्रश्न पूछने से डरता नहीं —
वह परंपरा की दीवारें तोड़ चुका है।
प्रश्न डर को जलाता है, और जहाँ डर नहीं,
वहीं से बोध जन्म लेता है।
जो किसी देवता, किताब या संस्था की छाया में नहीं छिपता —
वह समझ चुका है कि कोई भी छाया, चाहे कितनी भी पवित्र हो,
सत्य का स्थान नहीं ले सकती।
वह मंदिर नहीं बनाता —
क्योंकि उसे पता है कि हर मंदिर के भीतर एक नया पिंजरा जन्म लेता है।
वह अपने भीतर दीपक जलाता है —
क्योंकि उसे बाहरी रोशनी से अब उधार नहीं चाहिए।
यही है “बुद्ध” —
न अतीत का व्यक्ति,
न किसी पंथ का नाम,
बल्कि चेतना की वह लपट जो आज भी उन सब में जलती है
जो स्वयं से चलने की हिम्मत रखते हैं।
Agyat Agyani