भीतर की यात्रा — सत्य का मार्ग ✧
मनुष्य का सबसे बड़ा धोखा यही है कि वह सत्य को बाहर खोजता है।
कभी वह गुरु की ओर भागता है, कभी शास्त्रों की ओर, कभी किसी संस्था या संप्रदाय के आभामंडल में शरण लेता है। बाहर की ओर उसका आकर्षण इसीलिए होता है क्योंकि वहाँ शब्द हैं, कर्मकांड हैं, वचनबद्ध आश्वासन हैं। बाहर की दुनिया हमेशा व्यापार करती है—कभी धर्म के नाम पर, कभी पाप-पुण्य के सौदे पर, कभी ईश्वर के वादे पर।
लेकिन सत्य का व्यापार नहीं होता। सत्य बिकाऊ नहीं है, न ही किसी आचार्य के प्रमाण पत्र पर निर्भर है।
वह बाहर नहीं, भीतर छिपा है।
भीतर जाना ही असली आध्यात्मिकता है।
इस मार्ग पर न गुरु चाहिए, न कोई कर्मकांड।
बस तीन बातों को समझना है:
1. मन — जो तुम्हारे हर अनुभव को रंगता है। यदि मन जड़ प्रधान है तो वह देह और बाहरी संसार में उलझा रहेगा। यदि आत्मा की धारा में डूबा है तो भीतर के बीज तक ले जाएगा।
2. देह — जो साधन है, आधार है। इसका ज्ञान तुम्हें दिखाता है कि जीवन नश्वर है और भीतर का साक्षी ही शाश्वत है।
3. चैतन्य प्रवाह — वह सूक्ष्म बिंदु, वह 0-जैसा केन्द्र, जिसकी वजह से तुम हो। यही ब्रह्मांड का बीज है।
यहीं से यात्रा शुरू होती है।
सारा ब्रह्मांड इसी बिंदु में संकुचित है, और बाहर की हर खोज इसी बीज से छूटकर तुम्हें भटकाती है।
धर्मशास्त्र, उपनिषद्, गीता, बुद्ध के वचन—ये सब एक ही दिशा इशारा करते हैं:
“भीतर जाओ।”
लेकिन दिशा-दर्शन को ही लोग मार्ग समझ लेते हैं, और मार्गदर्शक को ही लक्ष्य मान बैठते हैं।
यहीं से माया जन्म लेती है।
वास्तविक मार्ग तो भीतर का मौन है—जहाँ मन थमता है, देह केवल साधन रह जाती है, और चैतन्य अपना स्वरूप प्रकट करता है।
वहाँ पहुँचने पर कोई शास्त्र नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई संस्था नहीं बचती।
केवल तुम और वह बीज—जो स्वयं ब्रह्मांड है।
agayat agyani