🔥 “अमृतांगी” – सर्ग 1 : तपोवन की कली
(पहले 20 श्लोक हो चुके हैं, अब आगे 21–100 तक)
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श्लोक 21 – 30
श्लोक 21
वन-मार्ग में मृग करते क्रीड़ा,
नीरवता में बहती मंद स्पंदा।
अमृतांगी मंदाकिनी-तट पर,
रत थी पुष्पमाल्य की सुगंधा॥
श्लोक 22
उसकी उर में प्रेम के अंकुर,
स्वप्न सजाते थे रजनी के सुकुमार।
किन्तु न जानती वह नयनांगी,
कौन मोड़ेगा उसकी जीवन-धार॥
श्लोक 23
कण्व ऋषि के चरणों में रहती,
शास्त्रों की वाणी सुनती,
किन्तु मन में अनामिक आह्वान,
प्रकृति के राग में खोई रहती॥
श्लोक 24
कदंब तले वह बैठी थी,
व्योम में नभमंडल देखती थी।
अचानक पवन से गगन गूँजा,
ज्यों देव रथ पृथ्वी छूता॥
श्लोक 25
तभी प्रकट हुआ एक धनुर्धर वीर,
गर्वित मुख, शौर्य से अधीर।
वज्र-भुजाएँ, पद्म-लोचन,
मानो स्वयं इन्द्र अवतरित धरा-धीरे॥
श्लोक 26
उसका नाम था विक्रम वीर,
राज-सिंहासन का स्वामी अधीर।
पर हृदय में कोमल लहर उठी,
देखा जब उस वन-माधुरी को नीर॥
श्लोक 27
क्षण भर नेत्रों से मिला नयन,
मानो नव वसंत छा गया वन।
मंद समीर ने दिया साक्ष्य,
कि यह है प्रेम का प्रथम मिलन॥
श्लोक 28
उसने कहा मधुर स्वर में—
“कौन हो, वनसुंदरी, कौन हो जीवन?
ज्यों प्राची में उदित हुई प्रभा,
वैसे ही आलोकित हो यह वन।”॥
श्लोक 29
अमृतांगी लजाकर बोली,
“ऋषिकन्या हूँ, लता सी कोमली।
कण्व मुनि का यह आश्रम है,
जहाँ तप की सरिता अनंत बह चली।”॥
श्लोक 30
मधुर स्मित से झुका वह वीर,
ज्यों चंद्र किरण चूमे नीर।
उस क्षण भाग्य ने लिख दी कथा,
जो गूंजेगी युगों तक अधीर॥
🔥 “अमृतांगी” – सर्ग 1 : तपोवन की कली
(पहले 20 श्लोक हो चुके हैं, अब आगे 21–100 तक)
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श्लोक 21 – 30
श्लोक 21
वन-मार्ग में मृग करते क्रीड़ा,
नीरवता में बहती मंद स्पंदा।
अमृतांगी मंदाकिनी-तट पर,
रत थी पुष्पमाल्य की सुगंधा॥
श्लोक 22
उसकी उर में प्रेम के अंकुर,
स्वप्न सजाते थे रजनी के सुकुमार।
किन्तु न जानती वह नयनांगी,
कौन मोड़ेगा उसकी जीवन-धार॥
श्लोक 23
कण्व ऋषि के चरणों में रहती,
शास्त्रों की वाणी सुनती,
किन्तु मन में अनामिक आह्वान,
प्रकृति के राग में खोई रहती॥
श्लोक 24
कदंब तले वह बैठी थी,
व्योम में नभमंडल देखती थी।
अचानक पवन से गगन गूँजा,
ज्यों देव रथ पृथ्वी छूता॥
श्लोक 25
तभी प्रकट हुआ एक धनुर्धर वीर,
गर्वित मुख, शौर्य से अधीर।
वज्र-भुजाएँ, पद्म-लोचन,
मानो स्वयं इन्द्र अवतरित धरा-धीरे॥
श्लोक 26
उसका नाम था विक्रम वीर,
राज-सिंहासन का स्वामी अधीर।
पर हृदय में कोमल लहर उठी,
देखा जब उस वन-माधुरी को नीर॥
श्लोक 27
क्षण भर नेत्रों से मिला नयन,
मानो नव वसंत छा गया वन।
मंद समीर ने दिया साक्ष्य,
कि यह है प्रेम का प्रथम मिलन॥
श्लोक 28
उसने कहा मधुर स्वर में—
“कौन हो, वनसुंदरी, कौन हो जीवन?
ज्यों प्राची में उदित हुई प्रभा,
वैसे ही आलोकित हो यह वन।”॥
श्लोक 29
अमृतांगी लजाकर बोली,
“ऋषिकन्या हूँ, लता सी कोमली।
कण्व मुनि का यह आश्रम है,
जहाँ तप की सरिता अनंत बह चली।”॥
श्लोक 30
मधुर स्मित से झुका वह वीर,
ज्यों चंद्र किरण चूमे नीर।
उस क्षण भाग्य ने लिख दी कथा,
जो गूंजेगी युगों तक अधीर॥