चार दीवारी कोई राज़ सँभाले,
मेरे ही जैसा कोई नीरव
जो पास है, पर शब्दों से परे है,
धड़कनों में बसी एक चाहत की लौ है।
समाज से परे हैं हम दोनों,
ना रस्में, ना दस्तूर, ना कोई मोहर,
फिर क्यों ये फासले पिघलते नहीं,
कब, कैसे, क्यों — ये जवाब मिलते नहीं।
तूने ठुकराया नहीं, पर अपनाया भी कब?
जब दिल से जुड़े थे, तो जुदा क्यूँ हुए हम?
मैं तो तेरी मोहब्बत पे फिदा था हर पल,
फिर तू दूर क्यूँ हुआ, बिन कहे, बिन छल?
चाहत अधूरी, पर सच्ची सी लगती है,
तेरी ख़ामोशी अब मेरी तक़दीर सी लगती है।
फिर भी... तेरे एहसास में मैं आज भी ज़िंदा हूँ,
बेवजह नहीं, पर तुझसे अब भी रिश्ता सा जुड़ा हूँ।