कवि_ विकास डोरिया , कविता- परिंदा
मैं हूँ एक परिंदा ;
जिसे कोई पकड़ नहीं सकता।
मेरा बसेरा हैं ; वहाँ जहाँ कोई पहुँच नहीं सकता।।
ना कोई सीमा ना कोई लगाम हैं मेरी
बस ख़ुदा की दी हुयी उड़ान हैं मेरी।।
और यही तो पहचान हैं मेरी।।
कभी पवन के संग उड़ता हूँ।
कभी बादलों के संग रहता हूँ।।
ना कोई मंजिल ना कोई मुकाम हैं मेरा
बस सफर तय करना काम हैं मेरा।।
आसमान मे उड़ाता जाऊँ
यारों के संग यारी ख़ूब निभाऊँ।।
छल - कपट मुझको नहीं आता।
बस पवन संग मैं उड़ाता जाऊँ------------
रात का घर मैं पेड़ को बनाऊँ।
सुबह होते ही; मैं फ़िर उड़ जाऊँ।।
दिन भर मैं बस उड़ता जाऊँ।
शाम होते ही फ़िर आजाऊँ।।
पवन संग मैं उड़ता जाऊँ---------
ना ईर्ष्या किसी से करता
ना शिकायत ख़ुदा से करता।
जो मिलता बस जीता जाऊँ
पवन संग मैं उड़ता जाऊँ-------------
ना बसेरा ना ठिकाना
काम हैं मेरा संदेश पहुँचना।
जो समझ सके
उसको मैं समझाऊँ
जो ना समझे ; तो फ़िर उड़ जाऊँ।।
पवन संग मैं उड़ता जाऊँ------------
बारिश के संग गाना गाता।
पंख फैलाकर नाच दिखाता।।
नाच - नाच कर ; जब थक जाता
देख पैर मैं रोने लगता
और क्षण - भर मै फ़िर उड़ जाऊँ।।
पवन संग मैं उड़ता जाऊँ -------------
किसान भाई को ख़ूब दौड़ाऊं
खेतों मे फ़िर चुगता जाऊँ।।
किसान आये तो फ़िर उड़ जाऊँ
यह क्रम मैं नित दोहराता;
किसान आये तो फ़िर उड़ जाता ।।
कोइ फ़िक्र ना चिंता करता
मस्ती से मैं उड़ता जाता।।
पवन संग मैं उड़ता जाता ---------------
नदियों में ; मैं नहाकर आऊँ
फूलों को भी संग ले आऊँ।।
फ़िर संगनी के पास मैं जाऊँ
आज कहाँ हैं ; तुम को जाना
शाम को बस डिनर पर ले जाना।।
मस्ती से मैं उड़ता जाऊँ
पवन संग मैं उड़ता जाऊँ-------------