Title....... बावरा मन
हां उसने तो कुछ भी नहीं कहा
फिर भी इस बावरे मन ने तो मान लिया ना
अब कैसे समझाऊ इस बावरे मन को
कि तु जिसे सोचता है, वो तेरी सोच से ही परे है
नादानियां छोड़....जरा समझदार हो जा
क्यूँ रात को उजला सवेरा समझ रहा है
क्यूँ पत्थर को हीरा समझ रहा है
ये जो सब तुझे आकर्षित कर रहे है ना
मृगतृष्णा है..
रेत के रेगिस्तान में समुंद्र सी कल्पना है
जिस रहा पर तू चलना चाहता है ना
वो पथ तेरे लिए नहीं है पथिक !
वो उँगली तक पकड़ना नहीं चाहता
तू क्यूँ कलाई थमाना चाहता है
क्यूँ खुद को खोना चाहता है उसमें
वो तुझे ढूँढना ही नहीं चाहता है
जिन गलियों में तू घूमना चाहता है
भटक जाएगा तू इस भूलभूलैय में मुसाफिर !