अपनों से अब डर लगता है....
अपनों से अब डर लगता है।
छलछद्मों का घर लगता है।।
जिसको दोस्त समझते अपना,
कुछ दिन बाद अदर लगता है।
नव पीढ़ी की सोच अलग अब,
रूठे अगर कहर लगता है।
सम्मानों की लिखी इबारत,
बिगड़ा-बोल जहर लगता है।
टीवी में जब बहसें चलतीं,
ज्ञानी अब विषधर लगता है।
न्यायालय में लगीं अर्जियां,
डरा हुआ अंबर लगता है।
सदियों बाद सजी अयोध्या,
पावन पवित्र नगर लगता है।
मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*