व्यंग्य
हम जी रहे हैं
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आप कह रहे हैं कि हम जी रहे हैं
चलिए मान लिया अच्छा कर रहे हैं
पर कौन सा तीर मार रहे हैं ?
या किसी पर अहसान कर रहे हैं।
सभी जीते हैं,आप भी जी रहे हैं
आखिर ऐसा कौन सा बड़ा काम कर रहे हैं,
या कोई अजूबा या बड़ा अनूठा काम कर रहे हैं,
अपने और अपने स्वार्थ की खातिर ही तो जी रहे हैं।
बड़ी चिंता है अथवा घमंड में जी रहे हैं
तो छोड़ दीजिए जीना, मेरा सिर क्यों खा रहे हैं?
अपने और अपनों के लिए तो सभी जीते हैं
किसी गैर के लिए तो आप कभी सोचते भी नहीं
फिर आप जी रहे हैं या मर रहे हैं,
इसका इतना प्रचार क्यों कर रहे हैं?
कौन मर रहा है या कौन जी रहा है
आपको फर्क भी कहाँ पड़ रहा है?
क्योंकि आप अपने जीने की फ़िक्र में
कुछ और सोच ही नहीं पा रहे हैं,
अरे! किसी और के लिए जीते
किसी और की चिंता करते
तब इतना गुरूर करते तो कुछ और बात होती।
लेकिन आप भी तो वही कर रहे हैं, जो हम कर रहे हैं
स्वार्थ की आड़ में अपने जीने की ओट में
औरों का सूकून छीनकर बड़ा खुश रहे हैं,
किसी की सुख शांति देख नहीं पा रहे हैं
शाँत तालाब में पत्थर उछाल कर अस्थिर कर रहे हैं।
सच! तो यह है कि आप जी नहीं रहे हैं
अपने आपको जबरदस्ती ढो रहे हैं
और सिर्फ गाल बजा रहे हैं कि हम जी रहे हैं,
अपने को सिर्फ और सिर्फ तसल्ली दे रहे हैं,
हम जी रहे हैं का बेसुरा राग अलाप रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव