अपना घर
बेटियों का क्यों अपना घर नहीं होता।
जन्म के बाद कहा जाता है कि बेटियां पराया धन है।
आखिर क्यों?
क्या बेटियो का अपना घर नहीं होता।
सदियों से सुनते आ रहे हैं
जन्म के बाद ही बावूल का घर है
इसे छोड़ कर जाना होगा।
बड़ी होते ही ये सिखाया जाता है
तू पराई है ये घर आंगन तेरा अपना नहीं है
शादी के बाद ये सुनना होता है
पति का घर ही तेरा अपना घर है।
सब कुछ सहना है कुछ ना कहना है
चुप ही तो रहना है ये पति का घर है।
फिर कुछ सालों बाद वो एक बेटी से बहु बनती है
और फिर एक मां बन जाती है।
जीवन के उतार चढ़ाव में खुद को कहीं भूल ही जाती है।
खुद के लिए जैसे जीना नहीं है
और फिर एक बेटे को बड़ा कर देती है।
अब उसे सुनना पड़ता है बेटे का घर।
बहु भी आएंगी,ताना भी सुनना है
पर खुद तो अपनी जिंदगी दूसरों के लिए गंवा देती है
पर अब भी उसे अपना घर नहीं मिलता है
यह तो रिवाज है कि सुनना है बस की ये तो बेटे का घर है।
पुरा जीवन निकल गया पर वो बेटी तो अब बुढ़ी हो गई है
धुंधली दिखती आंखों से एक इंतजार है कि कब सुनने को मिल जाए अपना घर।
ताउम्र निकल ही गया अब कुछ
सांसें थमीं है सीने में
आंखों में आसूं भी सुख चुके हैं
क्या करूं किस-किस से पुछूं मैं कि मैं कौन हूं?
क्या है मेरा वजूद?
क्या है मेरा अस्तित्व?
क्यों आईं हुं मैं इस दुनिया में
किसी की बेटी बनकर
किसी की बहु बनकर
किसी की पत्नी बनकर
किसी की मां बनकर।
सुन लिया सब कुछ,सह लिया
अब सिर्फ एक ही आसरा है
कोई तो बोल देता जाते वक्त
मरते मरते सुन पाती
कि बेटियां का अपना घर होता है।
हां बेटियां का अपना घर होता है।
समाप्त।