आजकल पाश्चात्य देशो का अनुसरण युवा पीढी फेशन बन गया है,बॉय फ्रेंड,गर्लफ्रेंड बनाने लगे है, हमारी संस्कृति मे रिश्तो के नामो की कमी नही है,नाम इतने है कि नये नाम की आवश्यकता ही नही, सहपाठी,सहपाठिनी हो सकते है,लेकिन इसी पीढी को हम दोष नही दे सकते,जब हम युवा थे तब हम भी अपने दादा जी दादी जी को संभवतः ओल्ड फेशन समझते थे,आज हम उनके रहन सहन बोलचाल को संस्कृति का स्वरूप बताते है,यह पीढी भी खुद के इस पड़ाव को पार कर हमारे रहन सहन को संस्कृति का स्वरूप बताकर तारीफ करने लगे । किन्तु समय के अनुरूप रहन सहन बदलता रहा है,कभी ऐसा भी था कि सिर पर मुकुट पगड़ी एक वस्त्र पहनते थे अतः इसका विरोध करना कहा तक सही है प्रश्न तो है । वैदिक काल उपनिषद काल का पहनावा,भाषा, संबोधन,अलग थे स्थानो के नाम अलग थे क्या उन्ही नामो को पुनः हम अपनाना शुरू करदे तो इसे हमारी संस्कृति मे लोटना कहेंगे । किन्तु हमें हमारे ग्रंथो को जानना है तो वर्णित शब्दो व स्थानो को जानना तो होगा । हस्तिनापुर मेरठ है इंद्रप्रस्थ दिल्ली पाटलीपुत्र पटना, प्रयागराज इलाहाबाद बन गया है,तो ग्रंथो को समझने मे दिक्कत तो होगी । खैर गर्ल फ्रेंड पर बात करते है - इस शब्द को सुनने से हमे यह सिर्फ एक दूसरे के प्रति आकर्षण का हेतु लगता है ,उत्श्रृंखलता इसमे लगती है,किन्तु यह हमारी कल्पना भी हो सकती है। क्योकि हम इस दौर के नही है। आजकल गर्लफ्रेंड सामान्य बात हो गयी है,यह सहपाठिनी की तरह है,हम यह सोचे कि स्त्री-पुरुष का रिश्ता सिर्फ पुराने जमाने का ही होना चाहिए यह गलत भी हो सकता है । अतः मेरे विचार से आज के दौर मे जन्मा यह रिश्ता युवा पीढी की आवश्यकता बन गया है,इसे बुरा न बताकर इसमे सुधार की व मर्यादा बने ऐसी अनुशंसा करनी चाहिए।
✍कैप्टन
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