नैनीताल( विद्यालय के दिन):
वहाँ मेरा होना और तुम्हारा होना
एक सत्य था,
इस बार वहाँ जाऊँगा
तो सोहन की दुकान पर
चाय पीऊँगा,
रिक्शा सटैंड पर बैठ
कुछ गुनगुना लूँगा,
बिष्ट जी जहाँ खड़े होते थे
वहाँ से दूर तक देखूँगा,
यादों की बारात में
तुम्हें खोजते-खोजते
नीचे उतर आऊँगा।
नन्दा देवी के मन्दिर में जा
सभी देवी देवताओं को धन्यवाद दे
कहूँगा कि जैसा चाहा वैसा नहीं दिया
पर जो दिया वह भी मूल्यवान है
जन्मों का फल है,
नैनी झील को
नाव से पार करते समय
देख लूँगा वृक्षों के बीच दुबके छात्रावासों को,
धूप सेंकने बैठे
खिलखिलाते-शरमाते चेहरों की ओर
जो लगता है हमारे जमाने से बैठे हैं।
हवा जो बह रही है
उससे पूछ लूँगा
तुम कब तक रूकोगी यहाँ,
वृक्ष जो छायादार हैं
उनसे पूछ लूँगा
कब तक फलोगे यहाँ पर,
जब उत्तर मिलेंगे
तब तल्लीताल आ जाऊँगा।
डाकघर पर
अपनी पत्र की प्रतीक्षा में
खो जाऊँगा दीर्घ सांस लेकर।
इधर मिलना
उधर मिलना
पैरों से कहूँगा रुक जाओ
नहीं होगा पार मन, शाम घिर आयी है।
ठंडी सड़क को
पड़ी रहने दें एकान्त में,
पाषाण देवी के मन्दिर जा, सोचें
चलो लौट चलें गाँव के पास।
देवदार के पेड़
अपनी छाया में
मिला लेंगे हमारी छाया,
हम समय के द्वार खोल
अन्दर हो आयेंगे,
बत्तखों को देखते
चलते-फिरते,आते-जाते
स्वयं को भूल जायेंगे।
अपने को भूलने के लिए
बुद्ध होना होगा,
अपने को भूलते हुये
किसी से भी मिल लेंगे,
आटे की दुकान से आटा खरीद लेंगे
चावल की दुकान से चावल
तेल की दुकान से तेल
और पका लेंगे अपना खाना।
कभी-कभी प्यार का सुर सुन
हो जायेंगे उदास।
समय का कोई ठिकाना नहीं
विद्यालय की कक्षा में बैठ
ज्ञान-विज्ञान के आश्चर्य जान लेंगे,
मन नहीं मानेगा तो
आकाश और धरती को देख खुश हो लेंगे,
बर्फ के गोलों की ठंड
स्वयं ही नहीं दोस्तों को भी छुआयेंगे,
अपने को ही नहीं
दूसरे को भी देखेंगे,
फूल सी हँसी कभी कहीं से झड़
बना सकती है लम्बा मार्ग,
मनुष्य के लिए सब कुछ सरल नहीं
कभी वह आग में जल सकता है
कभी बाढ़ में बह सकता है,
हर चाह चकित करती है
मरने के बाद फिर जीवित होती है।
हस्तलिखित हमारा मन
मालरोड के पुस्तकालय में पढ़
सारे समाचारों को इकट्ठा कर
एक-दूसरे को बतायेगा,
तब हमारी दुनिया
वहीं इकट्ठी हो जायेगी।
इसी बीच कहने लगूँगा
"ठंड में मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होती,
प्यार की ऊष्मा लिए
पहाड़ की ऊँचाई को पकड़े होती है।
हाथों के उत्तर
चलते कदमों की साथी,
क्षणों को गुदगुदाती
बातों को आगे ले जाती,
सशक्त पुल बनाती
उनको और हमको पहचानती,
तब मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होती.
(वही मूँगफली जो साथ-साथ मिलकर खाये थे।)"
*** महेश रौतेला