मैं और मेरे अह्सास
गुलाब
गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठों से शराब छलक रही हैं l
ये देख के दिल फेंक दिवानो की महफिल चहक रही हैं ll
रोम रोम में खिला हुआ है यौवन ओ मदमस्त मस्ती l
हुश्न की खूबसूरत अदाओं देख शाम भी बहक रही हैं ll
"सखी"
डो. दर्शिता बाबूभाई शाह