बहुत पहले…
जब कोई भाषा नहीं थी,
ना शब्द, ना विचार —
केवल प्रकृति का मौन संगीत था,
जहाँ हर वृक्ष, हर जलधारा, हर पक्षी
अपने नियमों में निहित सत्य जी रहे थे।
वहीं,
उस मौन में ही
नैतिकता का पहला बीज पड़ा —
संतुलन का बीज, सामंजस्य का बीज।
प्रकृति ने सिखाया —
“अधिक मत लो जितनी ज़रूरत है।”
“जो टूटे, उसे पुनः जोड़ो।”
“जो मिला है, बाँट दो।”
वह नियम नहीं थे,
वे जीवन की सहज लय थे।