"उसके हाथ कभी नहीं लगी वो पर्ची जिसपे लिखा था "कहो"
कहा सब्र करो,
तो वो चुप हो गई।
कहने की उम्र बीती,
सुनने वाला कोई रहा ही नहीं।
अब वो बस बैठी है,
आँखों में सन्नाटा लिए,
जैसे बोलने की हिम्मत
कभी थी ही नहीं…
कहो —
पर किससे?
जो सुनते हैं
वो समझते नहीं
जिस लफ़्ज़ पर लिखा था "कहो",
वो कभी उसके होंठों तक पहुँचा ही नहीं।
शब्द थे… पर हक़ नहीं था,
ज़ुबान थी… पर इज़ाज़त नहीं।
अब हर रात वही पर्ची जलती है,
जिस पर किसी ने उम्मीद लिखी थी।
और वो...
अब भी चुप है —
क्योंकि कहने से ज़्यादा दर्द
न सुने जाने में होता है।
Kirti Kashyap"एक शायरा"✍️